विद्वानों ने पितृसत्ता को एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था माना है जिसके अन्तर्गत पिता या कोई पुरुष, जो परिवार के सभी सदस्यों, सम्पत्ति व अन्य आर्थिक साधनों पर नियंत्रण रखता है, वही मुखिया कहलाता है, क्योंकि वंश या खानदान पुरुषों के नाम से ही चलता है। समाज की इस पितृसत्ता या पुरुष प्रधान समाज व्यवस्था में पुरुष का स्थान स्त्रियों से ऊँचा माना गया है और पुरुष को महिला का स्वामी या मालिक भी माना गया है। इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अन्तर्गत यह मान्यता भी है कि “महिलाओं को पुरुषों के अधीन और नियंत्रण में रहना चाहिये।”
परिवार समाज की यह विचारधारा महिलाओं को भी पुरुष की सम्पत्ति का एक हिस्सा मानती है और महिलाओं के शरीर पर भी पुरुषों का अधिकार माना जाता है। महिलाओं के सम्बन्ध में ऐसे निर्णय भी, कि वह कब और किसके साथ यौन संबंध बनाए, कब बच्चा पैदा करे, किससे करे, लड़के को जन्म दे या लड़की को तथा कितने बच्चों को जन्म दे ? आदि परिवार, समाज व सरकार के द्वारा किये जाते रहे हैं। ये निर्णय किसी भी महिला के अपने नहीं होते हैं। यह पितृसत्तात्मक व्यवस्था की सबसे बड़ी त्रासदी है।
- पितृसत्तात्मक व्यवस्था का धार्मिक क्षेत्र– विश्व के सभी धर्म पितृसत्तात्मक हैं। और महिलाओं के सम्बन्ध में समान दृष्टिकोण अपनाते हैं। विश्व के विभिन्न धर्मों के बहुत सारे कानून भी धर्मों पर आधारित होते हैं जैसे हिन्दू विधि, मुस्लिम विधि, ईसाई विधि आदि । इस समस्त कानूनों के अन्तर्गत विवाह, तलाक, भरण-पोषण तथा सम्पत्ति के अधिकार भी वर्णित किये गये हैं। समाज की इस व्यवस्था में, पुरुष और महिलाओं के बीच असमानता है, जो जन्म से लेकर मृत्यु तक बहुत ही स्पष्ट दिखाई देती है। भारतीय घर-परिवार के मामलों में, विशेष रूप से महिलाओं से सम्बन्धित मामलों में राजकीय विधियों से अधिक सामाजिक नियमों का विशेष महत्व है। अतः इस पितृसत्तात्मक समाज द्वारा अपनी व्यवस्था को सुचारू रूप से जारी रखने के लिये पुरुषों तथा महिलाओं के सम्बन्ध में कुछ अधिकार एवं कर्त्तव्य निर्धारित किये गये हैं। इस सामाजिक लिंग-भेद का परिणाम यह हुआ है कि पुरुषों को दिये हुए अधिकारों का पलड़ा, महिलाओं को दिए गए अधिकारों से सदैव ही अधिक भारी रहा है, जबकि कर्त्तव्य महिलाओं की तुलना में बहुत ही कम है।
पुरुषों एवं महिलाओं के सामाजिक अधिकार एवं कर्त्तव्य
पुरुषों और महिलाओं को समाज द्वारा दिये गये अधिकारों और कर्त्तव्ययों का विवरण अग्र प्रकार है-
- समाज के द्वारा दिये गये अधिकार – समाज द्वारा प्रदत्त पुरुषों एवं महिलाओं के सामाजिक अधिकार इस प्रकार हैं-
- पुरुषों के सामाजिक अधिकार समाज द्वारा पुरुषों को निम्न अधिकार दिये गये
- घूमने-फिरने की छूट
- परिवार का मुख्यिा रहना
- सम्बन्ध स्थापित करने की छूट
- सभी प्रकार के निर्णय करना
- सम्पत्ति पर कब्जा रखना
- वंश को अपने नाम पर चलाना
- महिलाओं के सामाजिक अधिकार-
- शादी के बाद पति के साथ संबंध बनाना
- शादी के बाद माँ बनना ।
- पुरुषों के सामाजिक अधिकार समाज द्वारा पुरुषों को निम्न अधिकार दिये गये
- समाज के द्वारा दिये गये कर्त्तव्य-समाज में पुरुषों एवं महिलाओं के कर्त्तव्य निम्न प्रकार हैं-
- पुरुषों के सामाजिक कर्त्तव्य-
- परिवार को सुरक्षा प्रदान करना
- परिवार का भरण-पोषण करना ।
- महिलाओं के सामाजिक कर्त्तव्य महिलाओं के सामाजिक कर्तव्य इस प्रकार हैं।
- पति को परमेश्वर मानकर खुश रखना
- परिवार के बड़े-बूढ़ों एवं बीमारों की सेवा करना
- परिवार नियोजन अपनाना
- बच्चा पैदा करना
- धार्मिक रीति-रिवाजों का पालन करना
- प्रात:काल से रात्रि तक घर के सारे घरेलू काम करना
- पुरुषों के सामाजिक कर्त्तव्य-
अधिकार कर्त्तव्यों की समीक्षा – समाज की इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में हो महिला को अपनी कोख पर भी हक नहीं होता है। प्रकृति के सनातन नियम के अनुसार, माहवारी शुरू होने के पश्चात् ही कोई भी लड़की माँ बन सकती है; जबकि इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में माँ बनने के लिये शर्त यह भी है कि केवल विवाहित महिलायें ही माँ बन सकती हैं और यदि कुंवारी, विधवा तथा तलाकशुदा महिला माँ बनती है तो यह सम्बन्ध समाज में नाजायज माना जाता है। साथ ही साथ परिवार का यह भी दबाव बना रहता है कि महिला लड़का ही पैदा करे समाज में महिला कम और किससे तथा किले बच्चे पैदा करे, यह निर्णय परिवार, समाज व सरकार का ही मान्य होता है। समाज में यह एक विचित्र तथ्य है कि “कोख महिला की है, लेकिन उसके सम्बन्ध में निर्णय परिवार, समाज व सरकार लेते हैं जबकि समाज में पुरुषों पर ऐसा कोई बन्धन नहीं है।”
इस पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था को मजबूत करने तथा उसे बरकरार रखने के लिये धर्मों की भी अहम भूमिका होती है। धर्म, रीति-रिवाज एवं परम्पराओं के माध्यम से ही महिलाओं के दिलो-दिमाग को, इस व्यवस्था द्वारा इस प्रकार से एक साँचे में ढाल दिया गया। है कि-“बिना गाड़ीवान के ही यह गाड़ी सधे सधाये तथा निश्चित रास्ते पर नियमित रूप से चलती रहती है। समाज उसी महिला को अच्छी-सी माँ, बहन एवं गृहिणी होने के लेबल देता है, जो इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था के रीति-रिवाजों तथा परम्पराओं पर बिना किसी प्रकार का प्रश्न किये चुपचाप आँख मूंदकर उनको मानती रहती है।”