एरिक्सन का मनोसामाजिक सिद्धान्त | Erikson’s Psychosocial Theory B.Ed Notes by Sarkari Diary

मनोसामाजिक सिद्धांत का प्रतिपादन एरिक्सन (1963) ने किया है। वे एक मनोविश्लेषक भी रहे हैं लेकिन उनका मत है कि विकास में जैविक कारकों की अपेक्षा सामाजिक कारकों की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण होती है। बच्चे के जीवन में जिस प्रकार के सामाजिक अनुभव होंगे उसी के अनुरूप विकास के पैटर्न प्रदर्शित होंगे। फ्रायड की तरह, एरिकसन का भी मानना है कि विकास की एक अवधि के दौरान एक बच्चा जो अनुभव करता है वह उसके भविष्य के विकास को भी प्रभावित करता है। इसीलिए उनके मॉडल को मनोसामाजिक मॉडल कहा जाता है।

इसमें कुल आठ अवस्थाएँ हैं-

एरिक्सन के अनुसार विकास की अवस्थाएँ जिन्हें उन्होंने मनोसामाजिक अवस्थाएँ (Psychosocial stages) का नाम दिया है। विकास प्रगामी (Progressive) होता है वह उत्तरोत्तर जटिल (Complex) होता जाता है।

एरिक्सन ने इदम् (Id) की अपेक्षा अहम् (Ego) को विकास के लिए अधिक महत्वपूर्ण बताया है और यह मानते हैं कि समझ आ जाने पर व्यक्ति वास्तविकताओं की परख करके जीवन को सन्तुलित बना सकता है इनके अनुसार बालक का सामाजिक परिवेश शीघ्र ही माता-पिता के अतिरिक्त अन्य लोगों तक फैलने लगता है और वे उसके व्यवहार को प्रभावित करते हैं।

एरिकसन के सिद्धांत को भी कई चरणों में विभाजित किया गया है, प्रत्येक चरण में वांछनीय और अवांछनीय विशेषताओं (तत्वों) का विकास होता है। जिस व्यक्ति में अधिक वांछनीय पहलू (जैसे आत्मविश्वास, स्वायत्तता, कड़ी मेहनत और उत्पादकता आदि) होते हैं उसका समायोजन अच्छा होता है। इसके विपरीत अवांछित तत्वों (जैसे अविश्वास, शर्म, हीनता और निराशा आदि) की अधिकता से व्यवहार में विकृतियाँ आती हैं और विकास एवं समायोजन में बाधा आती है।

विकास की अवस्थाओं का आशय (Meaning of stages of development)

एरिक्सन के व्यक्तित्व विकास के सिद्धान्त में आठ अवस्थाएँ सन्निहित हैं-

(i) आस्था बनाम अनास्था की अवस्था (Trust vs Mistrust Stage)

विकास की पहली अवस्था का प्रसार जन्म से प्रथम वर्ष तक माना गया है। इस अवस्था में बालक माता-पिता के ही सम्पर्क में अधिक रहता है और सामाजिक परिवेश सीमित होता है। माता-पिता का प्यार पाने के कारण उसमें उनके प्रति आस्था विकसित होती है परन्तु ऐसा न होने की दशा में उसमें अनास्था ( अविश्वास ) पैदा होती है एवं उसका व्यवहार असमायोजित होने लगता है। जिस मानसिक भाव से वह अगली अवस्था में प्रवेश करेगा व उसका उस अवस्था में होने वाले विकास पर प्रभाव अवश्य पड़ेगा।

एरिक्सन का मनोसामाजिक सिद्धान्त

(ii) स्वायत्तता बनाम सन्देह (Autonomy vs Doubt)

यह अवधि प्रथम से द्वितीय वर्ष तक विस्तारित मानी गई है। इस स्तर पर भी, बच्चे के सामाजिक वातावरण में मुख्य रूप से उसके माता-पिता शामिल होते हैं। अपने परिवेश की चीज़ों के प्रति उसकी जिज्ञासा बढ़ जाती है। उसमें आत्मसंयम और इच्छाशक्ति पनपने लगती है। जब उसे उचित देखभाल और प्यार और स्नेह मिलता है, तो उसमें आत्मविश्वास विकसित होता है और जब उसे दंडित किया जाता है या उपेक्षा की जाती है, तो शर्म, हीनता और निराशा बढ़ सकती है। यदि किसी बात के लिए उसका उपहास किया जाता है, तो वह अपनी क्षमताओं पर संदेह करने लगेगा और इससे उसके विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।

(iii) पहल बनाम ग्लानि (Initiative vs Guilt)

तीसरा चरण तीसरे से पांचवें वर्ष तक का माना जाता है। इस अवस्था में बच्चे का सामाजिक दायरा बढ़ जाता है। अपने परिवेश में उसे अपने माता-पिता के साथ-साथ अन्य सदस्य भी महत्वपूर्ण लगते हैं। अत: उसकी भावनाओं पर प्रभाव से संबंधित वातावरण का विस्तार होने लगता है। उसके अंदर जिम्मेदारी की भावना और कुछ करने की चाहत जागृत होती है। यदि उसे अपने कार्य में सफलता मिलती है और अन्य लोगों से प्रशंसा मिलती है तो उसकी पहल करने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है और यदि वह असफल होता है या उसकी आलोचना होती है तो वह स्वयं को दोषी या अपराधी मानने लगता है। यदि ऐसा हुआ तो वह अपनी जान बचाने के लिए बहुत प्रयास कर सकता है और उसका व्यक्तित्व ठीक से उभर नहीं पाएगा, इसलिए काम में उसकी रुचि बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए।

(iv) परिश्रम बनाम हीनता (Industry vs Inferiority)

इस स्थिति की व्यापकता छठे वर्ष से लेकर यौवन तक मानी जाती है। यदि बच्चे को पिछले चरण में सफलता और अनुमोदन मिलता रहा है तो वह काम में अधिक रुचि लेगा, अन्यथा वह हीन भावना से ग्रस्त हो जाएगा और अपनी जान बचाने की कोशिश करेगा। इसलिए, उसे अधिक से अधिक सीखने और कौशल हासिल करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ताकि वह एक सक्षम सामाजिक प्राणी बन सके।

(v) अस्तित्व बनाम भूमिका द्वन्द्व (Identity vs Role Conflict)

ऐसा माना जाता है कि इस स्थिति की व्यापकता किशोरावस्था (13-18 वर्ष) की अवधि तक फैली हुई है। इस अवस्था तक बच्चा काफी बुद्धिमान हो जाता है और अपना प्रभावी अस्तित्व (पहचान) स्थापित करना चाहता है। उसमें अपने लक्ष्य निर्धारित करने तथा निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार अपनी भूमिका निभाने की क्षमता भी होती है। लेकिन ऐसे बच्चे जो अपना अस्तित्व स्थापित करने में सफल नहीं हो पाते और अपना लक्ष्य भी तय नहीं कर पाते, वे संघर्ष की स्थिति में आ जाते हैं। इसलिए उनका समायोजन बाधित हो सकता है. उनमें कर्तव्यपरायणता एवं निष्ठा का विकास अवरुद्ध हो जाता है।

(vi) आत्मीयता बनाम पार्थक्य (Affiliation vs Isolation)

यह अवधि लगभग 19 से 35 वर्ष तक मानी जाती है। इसमें मित्रता फैलती है, प्रतिस्पर्धा एवं सहयोग की भावना बढ़ती है तथा कामुकता का प्रभाव भी बढ़ता है। परिणामस्वरूप, अन्य लोगों के प्रति जुड़ाव और प्रेम की भावना मजबूत हो जाती है। इसके विपरीत जब निराशा, असफलता, हीनता और संघर्ष होता है तो अकेलेपन की प्रवृत्ति बढ़ती है। व्यक्ति अन्य लोगों से अलग-थलग रहने लगता है और सामाजिक समायोजन एवं उपलब्धि का स्तर ख़राब हो जाता है।

(vii) उत्पादकता बनाम निष्क्रियता (Productivity vs Inaction)

इस काल का विस्तार 36 से 55 वर्ष तक माना जाता है। इस अवधि के दौरान व्यक्ति समाज का सक्रिय सदस्य बन जाता है और उसकी भूमिकाएँ काफी बढ़ जाती हैं। घरेलू ज़िम्मेदारियाँ, सामाजिक ज़िम्मेदारियाँ और व्यक्तिगत लक्ष्य व्यक्ति को काम या उद्देश्य के लिए तैयार करते हैं। इस प्रकार उसकी क्षमता बँट जाती है। समाज व्यक्ति से अपेक्षा करता है कि वह अपनी भूमिका का उचित निर्वहन कर समाज कल्याण में योगदान दे। इसके विपरीत निष्क्रियता या आत्म-लीनता की प्रवृत्ति से पीड़ित व्यक्ति उत्पादक या रचनात्मक कार्यों में रुचि नहीं लेता है। वह योगदान देने के बजाय समूह या समाज पर बोझ बन जाता है।

(viii) सत्यनिष्ठा बनाम नैराश्य (Integrity vs Despair)

एरिकसन के मनोसामाजिक सिद्धांत का यह अंतिम चरण 55वें वर्ष से शुरू माना जाता है और जीवन भर जारी रहता है। यह वह उम्र है जब बुढ़ापा शुरू हो जाता है, व्यक्ति सक्रिय जीवन से हटने की स्थिति में पहुंच जाता है और उसे रह-रहकर अपने अतीत और अपनी उपलब्धियों आदि की याद आने लगती है। इस प्रकार वह आत्म-मूल्यांकन करने लगता है। यदि उसे लगे कि उसका अतीत सुखमय और उपलब्धियों से भरा रहा है तो वह अपना शेष जीवन उत्साह और उमंग के साथ व्यतीत कर सकता है। लेकिन यदि वह जीवन के अधिकांश चरणों में असफल हो गया है, तो निराशा और चिंता उसके शेष जीवन को दुखी कर देगी।

मूल्यांकन (Evaluation)

एरिकसन ने विकास को समझाने के लिए अपेक्षाकृत अधिक व्यापक सिद्धांत प्रतिपादित करने का प्रयास किया है, फिर भी इसमें कुछ विशेष खामियाँ हैं, जैसे एरिकसन का यह मानना कि यदि किसी भी अवस्था में कोई कमी है, तो वह भविष्य में भी बनी रहेगी, उचित नहीं लगता। क्योंकि अतीत की कमियों को उपयुक्त परिस्थितियाँ बनाकर दूर किया जा सकता है, फिर भी यह सिद्धांत काफी आकर्षक है और इसकी मान्यताओं को वैज्ञानिक स्तर पर परखा जाना आवश्यक है।

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