उत्तर- स्वास्थ्य सेवा से तात्पर्य उन सब प्रक्रियाओं से है जिनका उद्देश्य बालक के स्वास्थ्य का मूल्यांकन करना, स्वास्थ्य की सुरक्षा तथा उनके बनाये रखने में बालक का सहयोग प्राप्त करना, बालक के स्वास्थ्य सम्बन्धी दोषों एवं रोगों से माता-पिता को परिचित कराना, रोगों की रोकथाम करना, जो दोष उपचार द्वारा ठीक किये जा सकते हैं, उनका उपचार करना आदि। अतः यह माता-पिता, डॉक्टरों, नसों, शिक्षकों, मनोवैज्ञानिकों और , , अन्य लोगों के सहयोग की आकांक्षी है।
विद्यालय की प्रारम्भिक कक्षाओं में तो बालकों को विद्यालयी स्वास्थ्य सेवाओं के द्वारा ही स्वास्थ्य शिक्षा अप्रत्यक्ष रूप से देना नितान्त आवश्यक है क्योंकि इस समय तक बालकों का मानसिक विकास इतना अधिक नहीं होता कि वह सैद्धान्तिक निर्देश को भली प्रकार समझ सकें। इन सेवाओं द्वारा प्राप्त ज्ञान एवं अनुभव आकस्मिक या योजनाबद्ध हो सकते हैं। किन्तु यह स्वास्थ्य शिक्षा के संगठित निर्देश नहीं हैं। विद्यालयी स्वास्थ्य सेवाएँ निम्न हो सकती हैं-
(1) स्वास्थ्य मूल्यांकन एवं स्वास्थ्य परीक्षण की व्यवस्था कार्यक्रम (Provision of Health Evaluation and Health Examination Programme)—बालकों के स्वास्थ्य का मूल्यांकन एवं परीक्षण, बालकों के स्वास्थ्य स्तर को निश्चित करने के लिए, उनके स्वास्थ्य की आवश्यकता को जानने के लिए आवश्यक है। बालकों के स्वास्थ्य निरीक्षण द्वारा बालकों में बीमारी के प्रारम्भिक संकेतों और शारीरिक दोष का ज्ञान हो जाता है। विद्यालय के चारों ओर का वातावरण अस्वास्थ्यप्रद अस्वच्छतापूर्ण तो नहीं है जिसके कारण बालक फैलने वाली बीमारियों से आक्रान्त हो जाए—का भी ज्ञान स्वास्थ्य निरीक्षण द्वारा हो जाता है।
स्वास्थ्य परीक्षण द्वारा बालक की स्वास्थ्य सम्बन्धी आवश्यकताओं को समझने के उपरान्त यह आवश्यक हो जाता है कि उन निरीक्षित दोषों का उपचार किया जाये। अतः बालकों के दोषों की सूचना एवं उचित निर्देशन उनके अभिभावकों को देना, बालकों को डॉक्टरी सहायता प्राप्त करने का अनुरोध करना-विद्यालयी स्वास्थ्य सेवा का मुख्य अंग है।
विद्यालय को नर्सों की सेवाएँ भी प्रदान करनी चाहिए। कुल परिवारों के पास दोषों के उपचार के लिए भी धन नहीं होता है। अतः आवश्यक हो जाता है कि विशेष स्कूल क्लीनिक (School Clinic) खोले जाएँ। इनकी व्यवस्था या तो स्वास्थ्य विभागों द्वारा अस्पतालों द्वारा या विद्यालयी स्वास्थ्य विभागं द्वारा गले के बढ़े टॉन्सिल, दाँत, नाक, गला, आँखों, फेफड़ों और हृदय रोगों आदि के दोषों के उपचार हेतु की जानी चाहिए।
(2) बाधाग्रस्त बालकों की शिक्षा की व्यवस्था (Provision Education of the Handicapped Children) — उन बालकों के लिए, जो साधारण स्कूल की कक्षाओं में सफलतापूर्वक नहीं पड़ सकते, क्योंकि उनमें कोई-न-कोई ऐसा शारीरिक दोष होता है (जैसे—देखने में बाधा, सुनने में बाधा आदि) जिनके कारण विशेष कक्षाओं के प्रबन्ध पर बल दिया जाता है। विद्यालय में विभिन्न प्रकार की विशेष कक्षाओं का होना अनिवार्य है, क्योंकि बालकों को किसी विशेष शारीरिक दोष और पिछड़ेपन के कारण एक विशेष प्रकार की शिक्षा की आवश्यकता होती है। इन कक्षाओं के अन्तर्गत अन्धे, विकलांग बच्चों तथा मानसिक दृष्टि से पिछड़े बालकों की कक्षाएँ आती हैं।
एक अन्य प्रकार की कक्षाएँ भी हैं, जिनमें ध्यान स्वास्थ्य सुधार पर ही केन्द्रित रहता है। इसके अन्तर्गत चक्षु संरक्षण कक्षाएँ आयेंगी, जो निर्बल दृष्टि के बालकों के लिए होती
हैं। उन्हें दृष्टि का संरक्षण सिखाया जाता है और साथ ही उन्हें ऐसा कार्य सिखाया जाता है, जिसमें वे सफलता प्राप्त कर सकें। अनेक विभिन्न प्रकार की कक्षाएँ हो सकती हैं जिनकी योजना हृदय रोग से पीड़ित उन बच्चों के लिए जिन्हें विशेष आराम और पौष्टिक भोजन को आवश्यकता है और उन बच्चों के लिए जो मानसिक रोगों से पीड़ित हैं—विशेष रूप से बनाई जाती है। इन कक्षाओं में स्वास्थ्य पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाता है और ऐसा प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है जो शिक्षार्थी के स्वास्थ्य की उन्नति में बाधक न हो।
(3) शारीरिक शिक्षा की व्यवस्था (Provision of Physical Education)— विद्यालय बालकों के सर्वांगीण विकास का महत्वपूर्ण स्थल है। बालकों के शारीरिक विकास हेतु भी विद्यालय में उचित व्यवस्था होनी चाहिए। खेल व व्यायाम के लाभ तथा इनसे सम्बन्धित सिद्धान्तों एवं नियमों से बालकों को परिचित कराना चाहिए।
(4) मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा की व्यवस्था (Provision of Mental Health Education)— शारीरिक स्वास्थ्य से भी अधिक महत्त्वपूर्ण बालक का मानसिक स्वास्थ्य होता है। बालकों के मानसिक स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए विद्यालय का भौतिक एवं मानवीय वातावरण उत्तम होना चाहिए। शिक्षक को बालक की संवेगात्मक आवश्यकताओं का ज्ञान हो तो वह बालक को भी उसके संवेगात्मक विकास हेतु आवश्यक गुणों को अपने व्यक्तित्व में उत्पन्न करने हेतु निर्देशित करें। इतना ही नहीं, मानसिक दृष्टि से अस्वस्थ बालकों के उचित उपचार एवं परामर्श हेतु अनुभवी मनोवैज्ञानिक, मनः चिकित्सक आदि की सेवाएँ उपलब्ध कराने की व्यवस्था होनी चाहिए।
(5) यौन शिक्षा की व्यवस्था (Provision of Sex Education ) – मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाला प्रमुख तत्त्व काम प्रवृत्ति है। काम प्रवृत्ति के स्वस्थ्य विकास में किसी प्रकार का दोष उत्पन्न हो जाने के कारण बालक अनेक मानसिक एवं संवेगात्मक
दोषों का शिकार बन जाता है। अभी तक विद्यालय यौन सम्बन्धी शिक्षा देने के उत्तरदायित्व से बचने का प्रयास करता रहा है। परन्तु आज वह अपने इस दायित्व से बच नहीं सकता । अतः विद्यालयों में यौन शिक्षा की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। बालकों को मानव प्रजनन संस्थान सम्बन्धी जानकारी दी जाये। उनकी काम प्रवृत्ति के उन्नयन एवं मार्गान्तरीकरण हेतु पाठ्यक्रम सहगामी क्रिया-कलापों की उचित व्यवस्था की जानी चाहिए।
(6) रोगों का निदान एवं नियन्त्रण की व्यवस्था (Provisiion for Diagnosis and Control of Diseases ) — विद्यालय के बालकों के स्वास्थ्य की सुरक्षा अति आवश्यक है। जहाँ समूहों में इकट्ठे रहते हैं, वहाँ हमेशा संक्रामक बीमारियों के फैलने का भय रहता है। यदि विद्यालय में संक्रामक रोगों को रोकने का यथेष्ट प्रबन्ध न किया जाये तो फैलने वाली बीमारियों का बोलवाला रहता है। अतः विद्यालय में बालकों को संक्रामक रोगों से बचाने के लिए शिक्षकों को उचित सावधानी रखनी चाहिए और विद्यालयों में रोगों के उपचारों से अवगत कराना चाहिए।
(7) आकस्मिक दुर्घटना हेतु प्राथमिक सहायता की व्यवस्था (Provision of First Aids For Incident) विद्यालय में आकस्मिक घटनाएँ होती रहती हैं, जिनके लिए शिक्षक का रोगी को प्रारम्भिक सहायता देना परमावश्यक है। आकस्मिक दुर्घटना हो जाने पर रोगी की जान बचाने की चेष्टा करना तथा दुर्घटना और चोट के कारण को हटाना एवं प्रारम्भिक सहायता देना- शिक्षक का कर्त्तव्य है। यह तभी संभव है जब कि विद्यालय में प्रारम्भिक चिकित्सा के लिए उचित व्यवस्था हो। अतः विद्यालय में शिक्षक प्रारम्भिक चिकित्सा के जानकार होने चाहिए और विद्यालय में चिकित्सा हेतु उचित सामग्री भी होनी चाहिए ।
विद्यालयी स्वास्थ्य सेवाओं के कार्य
- विद्यार्थियों को व्यक्तिगत स्वास्थ्य रक्षा की सामान्य बातें बताना । 2. स्वास्थ्यप्रद जीवन के मूल तत्त्वों की जानकारी देना ।
- विविध रोगों से बचाव करना ।
- संक्रामक रोगों से रक्षा करना ।
- स्वास्थ्य की सही जानकारी देना।
- स्वास्थ्य सम्बन्धी आँकड़े तैयार करना। 7. स्वास्थ्य विभाग से बच्चों को परिचित कराना ।
- अभिभावकों को बच्चों की स्वास्थ्य की स्थिति की जानकारी देना ।
- स्कूल में उचित वातावरण बनाना । 10. बच्चों की उचित देखभाल करना ।
- बच्चों में स्वस्थ आदतें व अभिवृत्ति विकसित करना । विद्यालय स्वास्थ्य सेवा की आवश्यकता तथा महत्त्व
टर्नर के अनुसार-
- बच्चों में रोगों का पता लगाने व उपचार में सहायक ।
- संक्रामक रोगों की रोकथाम व नियन्त्रण में मदद।
- स्वास्थ्य वातावरण के निर्माण व निरीक्षण में सहायक ।
- स्कूल के बच्चों, अध्यापकों, कर्मचारियों के स्वास्थ्य के निरीक्षण में सहायक । 5. आपात्कालीन स्थितियों में सहायक