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बालक के सतत और जीवनपर्यंत समग्र विकास में परिवार और विद्यालय के वातावरण की भूमिका

Published by: Ravi Kumar
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बालक का विकास एक सतत, क्रमिक और बहुआयामी प्रक्रिया है, जो केवल जैविक गुणों पर नहीं, बल्कि उसके चारों ओर के सामाजिक, पारिवारिक और शैक्षिक वातावरण पर भी निर्भर करता है। विशेष रूप से परिवार और विद्यालय का वातावरण बालक के जीवनपर्यंत समग्र विकास में केंद्रीय भूमिका निभाता है। यदि बालक को घर और विद्यालय दोनों ही स्थानों पर अनुकूल, सहायक और शिक्षाप्रद वातावरण मिले, तो उसका शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, भावनात्मक, नैतिक और बौद्धिक विकास संतुलित और सशक्त रूप से होता है।

परिवार के वातावरण की भूमिका

बालक का प्रारंभिक विकास परिवार में ही आरंभ होता है। माता-पिता, दादा-दादी, भाई-बहन और अन्य परिजन बालक के पहले शिक्षक होते हैं। यदि परिवार में प्रेम, सहयोग, सुरक्षा और नैतिक मूल्यों की भावना विद्यमान है, तो बालक आत्मविश्वासी, संस्कारित और मानसिक रूप से स्थिर बनता है।

पारिवारिक वातावरण बालक की भाषा, आदतों, सोचने के ढंग और सामाजिक व्यवहार को आकार देता है। जिन घरों में माता-पिता शिक्षित हैं, संवाद की भाषा शुद्ध और सकारात्मक है, वहाँ बालक का भाषाई और बौद्धिक विकास अधिक प्रभावी होता है। इसके विपरीत यदि परिवार में झगड़ा, गाली-गलौज, उपेक्षा या असंवेदनशीलता है, तो बालक में संवेगात्मक अस्थिरता, डर, हीनता या असामाजिक प्रवृत्तियाँ विकसित हो सकती हैं।

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पोषण, स्वास्थ्य और स्वच्छता से जुड़ी आदतें भी बालक परिवार से सीखता है। अगर उसे संतुलित आहार, पर्याप्त नींद और बीमारियों से बचाव का ज्ञान घर पर मिलता है, तो वह शारीरिक रूप से मजबूत और आत्मनिर्भर बनता है।

विद्यालय के वातावरण की भूमिका

परिवार के बाद बालक का संपर्क जिस संस्थान से होता है, वह है विद्यालय। विद्यालय केवल शिक्षा प्राप्त करने का स्थान नहीं, बल्कि सामाजिकता, नैतिकता, नेतृत्व और जीवन कौशलों के विकास का भी केंद्र होता है।

यदि विद्यालय का वातावरण अनुशासित, प्रेरणादायक और सीखने के लिए सहयोगी है, तो बालक न केवल ज्ञान अर्जित करता है, बल्कि उसमें आत्मविश्वास, रचनात्मकता और सामाजिक सहभागिता भी विकसित होती है। अच्छे शिक्षक बालकों के लिए रोल मॉडल होते हैं। वे उनके प्रश्नों का समाधान करते हैं, उनके व्यवहार को सही दिशा में ले जाते हैं और उन्हें जीवन के लिए तैयार करते हैं।

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यदि विद्यालय में शिक्षकों की रुचि शिक्षण में नहीं है, पाठ्यसहगामी गतिविधियों का अभाव है, या छात्र अनुशासनहीनता और हिंसक प्रवृत्तियों से ग्रस्त हैं, तो बालक का समग्र विकास बाधित हो सकता है। शारीरिक गतिविधियों के लिए खेल सामग्री, मानसिक विकास के लिए पुस्तकालय और नैतिक शिक्षा के लिए प्रेरणादायक वातावरण अत्यंत आवश्यक हैं।

निरंतर और अनिरंतर विकास के मार्ग

बाल विकास एक सतत प्रक्रिया है, जिसे निरंतर प्रेरणा, अभ्यास और अनुकूल अवसरों की आवश्यकता होती है। यदि बालक को लगातार अनुकूल वातावरण, सकारात्मक प्रतिमान और उचित मार्गदर्शन मिलता रहे, तो उसका विकास निरंतर होता है। उदाहरण के लिए, हर दिन शिक्षण, नैतिक शिक्षा, खेल, रचनात्मक गतिविधियाँ आदि नियमित रूप से हों तो बालक समग्र रूप से विकसित होता है।

इसके विपरीत अनिरंतर विकास में अवसर और प्रयास अस्थायी या अचानक होते हैं। जैसे कि केवल परीक्षा के समय पढ़ाई कराना, या केवल उत्सव के समय नैतिक शिक्षा देना—इस प्रकार की अस्थायी गतिविधियाँ बालक के गहन और दीर्घकालिक विकास में प्रभावी नहीं होतीं।

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इसलिए सतत और योजनाबद्ध प्रयास, जो बालक की जिज्ञासा, अनुभव और अभ्यास को पोषित करें, ही उसके जीवनपर्यंत विकास को सुनिश्चित कर सकते हैं।

निष्कर्ष

बालक के सतत और जीवनपर्यंत समग्र विकास में परिवार और विद्यालय दोनों का वातावरण निर्णायक भूमिका निभाता है। जहाँ परिवार भावनात्मक सुरक्षा, संस्कार और प्रारंभिक शिक्षण का केंद्र है, वहीं विद्यालय ज्ञान, अनुशासन, सामाजिकता और रचनात्मकता को बढ़ावा देता है। इन दोनों का संतुलित योगदान ही बालक को एक जिम्मेदार, आत्मनिर्भर और संवेदनशील नागरिक बनाने की दिशा में मार्गदर्शन करता है।

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Ravi Kumar is a content creator at Sarkari Diary, dedicated to providing clear and helpful study material for B.Ed students across India.

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