‘स्वास्थ्य’ शब्द में केवल शारीरिक स्वास्थ्य से तात्पर्य नहीं है बल्कि स्वास्थ्य से हमारा अभिप्राय शारीरिक, मानसिक व संवेगात्मक पक्षों के कल्याण से है। स्वास्थ्य के विषय में पूरी जानकारी प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि पहले उन कारकों को समझा जाए जो शारीरिक स्वास्थ्य के पक्षों को प्रभावित करते हैं। निम्न कारक अन्तःसम्बन्धित हैं और व्यक्ति के शारीरिक स्वास्थ्य और उसकी समस्त क्रियाओं में अपना विशेष योगदान देते हैं-
- आनुवंशिकता का प्रभाव और
- वातावरण का प्रभाव
आनुवंशिकता का प्रभाव –
वंशानुगत गुण व अवगुण व्यक्ति को जीन के द्वारा माता-पिता से प्राप्त होते हैं। जिस समय माता व पिता के अण्डाणु का संयोग होता है, भावी व्यक्ति को विरासत में मिलने वाले गुणों-अवगुणों का निर्धारण हो जाता है। शुक्राणु का संयोग एक संसेचित कोशिका को 24 क्रोमोसोम अण्डाणु से और 24 क्रोमोसोम शुक्राणु से प्राप्त होते हैं। इन अण्डों के समान दिखने वाले क्रोमोसोमों में जीन रहते हैं। जब संसेचित कोशिका का विभाजन होने लगता है तो प्रत्येक क्रोमोसोम भी दो समान सूत्रों में बँट जाते हैं और इस प्रकार क्रोमोसोमों के 48 जोड़े बन जाते हैं। विभाजन क्रिया के अन्तर्गत प्रत्येक जोड़े में से एक-एक क्रोमोसोम दोनों कोशिकाओं में पहुँच जाता है। इस प्रकार एक कोशिका से दो ऐसी कोशिकाओं का जन्म होता है जो पूर्णतः जन्मदायी कोशिका के समान होती हैं। फिर दोनों नयी कोशिकाएँ इसी प्रकार विभाजित होकर चार कोशिकाएँ बनाती हैं। इन कोशिकाओं के जीन आनुवंशिकता की विशेषताओं को भावी सन्तान तक पहुँचाने के माध्यम हैं ।
आनुवंशिकता से प्राप्त माता-पिता की शारीरिक विशेषताएँ बालकों में स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। सन्तान की आकृति, आकार, रंग-रूप बहुत कुछ माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी के अनुरूप होते हैं। शारीरिक गुणों के साथ-साथ माता-पिता के बहुत-से मानसिक व बौद्धिक गुण-अवगुण भी सन्तान को प्राप्त होते हैं। वास्तव में आनुवंशिकता व्यक्ति में कुछ विशेषताओं के बीज ही प्रदान करती है और उनकी वृद्धि की सीमाएँ निर्धारित करती है परन्तु उनकी वृद्धि व विकास तो (निर्धारित सीमा के भीतर) वातावरण में उपलब्ध साधनों व सुविधाओं द्वारा होता है।
यदि व्यक्ति को अपने माता-पिता से वंशानुगत उत्तम स्वास्थ्य प्राप्त हुआ है तो उसका शरीर सबल, सुदृढ़ व सुगठित होता है। उसमें कठोर परिश्रम करने की और रोगों से बचने की यथेष्ट क्षमता होती है। व्यक्ति पैतृक गुणों में परिवर्तन नहीं ला सकता परन्तु उत्तम भौतिक व स्वस्थ वातावरण में उनको सम्भव सीमा तक विकसित कर सकता है।
वातावरण का प्रभाव
जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त व्यक्ति पर होने वाली सभी प्रभाव-भौतिक, शैक्षिक, संवेगात्मक उसका वातावरण है। परिवार की आर्थिक क्षमता, बाह्य भोजन, आवास, वस्त्र देश व समुदाय की संस्कृति, परम्पराएँ, भाषा, अभिवृत्तियों और विश्वास या अन्धविश्वास, प्रतिबन्ध तथा रीति-रिवाज आदि व्यक्ति के शारीरिक विकास तथा उसके विचार व क्रियाओं को प्रभावित करते हैं।
वातावरणीय घटक शारीरिक स्वास्थ्य को विशेष रूप से प्रभावित करते हैं-
- रहन-सहन और क्रियाशीलता
- शरीर पोषण
- रोगों और दुर्घटनाओं से बचाव ।
मानसिक व संवेगात्मक स्वास्थ्य
मानसिक स्वास्थ्य का व्यक्ति के रहन-सहन और दैनिक जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध है यह एक ऐसा घटक है जो शारीरिक और संवेगात्मक स्वास्थ्य दोनों के कल्याण में सहायक होता है। आजकल मानसिक रोगों में जो इतनी वृद्धि हुई है उसका प्रमुख कारण यह है कि व्यक्ति न तो अपने आपको समझता है और न अपने साथियों को। वह मानसिक स्वास्थ्य के सिद्धान्तों को न जानते हुए आज के समाज की तीव्र गति प्रतियोगिता, दबाव, तनाव और चिन्ता आदि की परिस्थितियों से सामंजस्य करने में असफल रहता है। मानसिक स्वास्थ्य के आधारभूत सिद्धान्तों को समझने से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि ‘मानसिक स्वास्थ्य’ का अर्थ क्या है ?
मानसिक स्वास्थ्य उस व्यक्ति का गुण है जो जीवन की माँगों और समस्याओं का अपनी योग्यताओं और कमजोरियों के आधार पर सामना करने में समर्थ होता है। मानसिक स्वास्थ्य केवल मानसिक विकारों से मुक्त दशा नहीं है बल्कि यह व्यक्ति के दैनिक जीवन का एक सक्रिय गुण है। मानसिक स्वास्थ्य से व्यक्ति अपने विषय में और अन्य लोगों के विषय में अपनी भावनाओं को समझता है और उन पर नियन्त्रण भी करता है। इस गुण से व्यक्ति संसार की वास्तविक परिस्थितियों का सामना सफलतापूर्वक कर सकता है। व्यक्ति इसी गुण के आधार पर अपनी भावनाओं, इच्छाओं, आकांक्षाओं, लक्ष्यों और योग्यताओं में सन्तुलन लाने में समर्थ होता है। मानसिक स्वास्थ्य का यह गुण उसे केवल वंशानुक्रम से ही प्राप्त नहीं होता है। यह गुण उसके अपने प्रयासों से और जीवन की विभिन्न परिस्थितियों से सामंजस्य स्थापन करने से भी बहुत कुछ विकसित होता है।
पर्यावरणीय सामंजस्य
व्यक्ति कितना ही शारीरिक रूप से मजबूत हो, उसका रहन-सहन भी स्वास्थ्य की दृष्टि से कितना ही उपयुक्त हो, किन्तु यदि उसका अपने भौतिक या सामाजिक परिवेश से सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाया तो वह मानसिक असन्तुलन से ग्रस्त होकर सुख-चैन से वंचित रहेगा और समाज में उसके व्यक्तिगत सम्बन्ध भी सुखदायी नहीं होंगे। जब मनुष्य परिवार में और व्यवसाय सम्बन्धी कार्यों के करने में समझदारी से व्यक्ति व सामाजिक सामंजस्य स्थापित कर लेता है तभी वह सुखी व उपयोगी जीवन व्यतीत कर सकता है। वातावरण से व्यक्तिगत सामंजस्य तभी होता है जब वह निवास स्थान और आजीविका के कार्य स्थान की भौतिक स्थिति से और वहाँ के मानवीय तत्वों से सामंजस्य स्थापित करने में सफल होता है।
व्यक्तिगत सामंजस्य के अन्तर्गत यह अपेक्षा की जाती है कि व्यक्ति अपनी संवेगात्मक अभिव्यक्ति का नियन्त्रण करें, जीवन के प्रति उसमें स्वस्थ अभिवृत्तियों का निर्माण व विकास हो और समाज में वह शिष्ट व्यवहार करने की आदत का निर्माण करे। सामाजिक सामंजस्य में यह भी निहित है कि वह स्वास्थ्य की सार्वजनिक योजनाओं के क्रियान्वयन में अपना अधिकतम योगदान दे। परिवार व समाज में सुरक्षा व मान्यता प्राप्त होने से उसे स्वयं को भी मानसिक सन्तुलन व सुख-शान्ति की अनुभूति होगी।