शिक्षण के नियम, शिक्षण के सामान्य एवं मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त तथा शिक्षण सूत्र B.Ed Notes by SARKARI DIARY

शिक्षण के नियम, शिक्षण के सामान्य एवं मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त तथा शिक्षण सूत्र (Teaching Principles, General & Psychological Principles of Teaching and Maxims of Teaching)

एक कुशल शिक्षक से अपेक्षा की जाती है कि वह शिक्षण को प्रभावी बनाने के लिए शिक्षण के नियमों, शिक्षण के सामान्य एवं मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों तथा शिक्षण सूत्रों का आवश्यकतानुसार उपयोग करे। इनका पालन करके शिक्षक अपने शिक्षण को प्रभावशाली बनाता है। शिक्षण के माध्यम से विद्यार्थियों के व्यवहार में परिवर्तन लाया जाता है। शिक्षण प्रक्रिया को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए विभिन्न शिक्षाविदों, मनोवैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं ने विभिन्न शिक्षण सिद्धांतों और सूत्रों का उपयोग किया है। ये सिद्धांत और सूत्र शिक्षण को नियंत्रित करते हैं और शिक्षक को सफल शिक्षण की ओर ले जाते हैं। इन सभी शिक्षण नियमों, सिद्धांतों एवं सूत्रों को निम्नलिखित भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है-

शिक्षण के नियम, सामान्य एवं मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त तथा शिक्षण सूत्र - Sarkari DiARY
  1. शिक्षण के नियम (Principles of Teaching)
  2. शिक्षण के सामान्य सिद्धान्त (General Principles of Teaching)
  3. शिक्षण के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त (Psychological Principles of Teaching)
  4. शिक्षण सूत्र (Maxims of Teaching)

शिक्षण के नियम (Principles of Teaching)

शिक्षण एक सामाजिक प्रक्रिया है। दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान का शिक्षण पर बहुत प्रभाव है। शिक्षण के नियमों में भी असमानता है। नीचे सभी महत्वपूर्ण नियमों का उल्लेख किया जा रहा है, जिनका उपयोग शिक्षकों को अपने शिक्षण को कुशल और प्रभावी बनाने के लिए करना चाहिए। अच्छी शिक्षा अच्छे नियमों पर आधारित होती है। इसलिए शिक्षकों को इन नियमों की जानकारी अवश्य होनी चाहिए।

शिक्षण के प्रमुख नियमों/अधिनियमों का उल्लेख नीचे किया जा रहा है-

  • शिक्षण में नवीन ज्ञान को पूर्व ज्ञान से सम्बन्ध जोड़कर पढ़ाया जाना चाहिए (शिक्षण पूर्व ज्ञान पर आधारित रहना चाहिए)।
  • शिक्षण में यथासम्भव प्रश्नोत्तर विधि का प्रयोग करके नवीन ज्ञान प्रदान किया जाना चाहिए।
  • शिक्षण में शिक्षक को चाहिए कि वह छात्रों को अनुकरण करने तथा उसके अभ्यास करने के अवसर प्रदान करे। इससे शिक्षण प्रभावशाली हो जाता है।
  • शिक्षण में सामाजिक अभिप्रेरणा का प्रयोग कुशल शिक्षण के लिए आवश्यक होता है।
  • शिक्षण में छात्रों की बौद्धिक क्षमताओं का ध्यान रखना चाहिए और पूरा शिक्षण उन पर आधारित होना चाहिए।
  • शिक्षक द्वारा छात्रों को जब अभिप्रेरणा तथा अपेक्षित व्यवहार को पुनर्बलन दिया जाता है तो हे अधिक तत्परता के साथ सीखते हैं।
  • सामान्य अभिप्रेरणा. कुशल शिक्षण के लिए वरदान है (8) छात्र दण्ड की अपेक्षा प्रशंसा से ज्यादा सीखते हैं।
  • बाह्य प्रेरणा की तुलना में छात्रों के अधिगम हेतु आन्तरिक प्रेरणा ज्यादा अच्छी भूमिका निभाती है।
  • छात्रों के लिए शिक्षण अधिगम उद्देश्य तथा आकांक्षा स्तर उनकी योग्यताओं, स्तर तथा क्षमताओं के आधार पर निर्धारित किये जाने चाहिए।
  • शिक्षण सहायक श्रव्य दृश्य सामग्री शिक्षण को प्रभावशाली बनाने में सहायता करती है।
  • ज्ञान की सफलता सीखने में पुनर्बलन का कार्य करती है।
  • छात्र सार्थक विषय सामग्री, निरर्थक सामग्री की अपेक्षा जल्दी समझ लेते हैं। सीखने में ‘अभ्यास’ की भूमिका निर्विवाद है। छात्र ‘स्व-अभ्यास से बहुत कुछ सीख लेता है
  • कार्यों तथा पाठ्यवस्तु के तत्वों को मनोवैज्ञानिक क्रम में प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
  • पूर्व ज्ञान तथा नवीन ज्ञान में समानता तथा सम्बन्ध दिग्दर्शित होने पर स्थानान्तरण की प्रक्रिया सरलता से होती है-फलस्वरूप प्रभावशाली अधिगम जन्म लेता है।
  • अधिगम की धारणा के लिए तथा पाठ्यवस्तुत के प्रत्यास्मरण के लिए कुशल शिक्षक सदैव अपने छात्रों को आवश्यक अवसर प्रदान करता है।
  • अपेक्षित अधिगम परिस्थितियों के अनुभवों को प्रदान करने के लिए शिक्षक को पूर्ण प्रयास करने चाहिए ताकि उसके चिन्तन, भावनाओं तथा कार्यों में समन्वय हो सके।
  • शिक्षकों को चाहिए कि वे छात्रों को उनके अधिगम उद्देश्यों एवं लक्ष्यों की प्राप्ति की ओर अग्रसर करे और उपयुक्त वातावरण का निर्माण करे।
  • छात्रों को सृजनात्मक कार्यों के लिए यथासम्भव पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की जानी चाहिए।
  • छात्रों की परिपक्वता, अभिरुचि तथा क्षमताओं के अनुरूप शिक्षक को अपनी शिक्षण नीतियों, विधियों तथा युक्तियों का चयन करना चाहिए।
  • शिक्षण में कोई भी परामर्श थोपा नहीं जाना चाहिए। शिक्षक को सहानुभूतिपूर्ण निर्देशन दिया जाना चाहिए।
  • शिक्षक को ऐसी शिक्षण व्यवस्था का निर्माण करना चाहिए जिससे छात्र समूहों में काम कर सकें, जिससे कि उनमें सामाजिकता, सहयोग की भावना एवं परस्पर अच्छे सम्बन्धों की स्थापना आदि गुण विकसित हो सके।

शिक्षण के सामान्य सिद्धान्त (General Principles of Teaching)

शिक्षण को प्रभावी बनाने के लिए कई दार्शनिकों, शिक्षा विशेषज्ञों और समाजशास्त्रियों ने कई शोध, प्रयोग और गहन चिंतन किया है, जिसके परिणामस्वरूप शिक्षण के क्षेत्र में कई शोध और प्रयोग किए गए। शिक्षण के क्षेत्र में इन शोध प्रयोगों और सामान्य परंपराओं के परिणामस्वरूप शिक्षण के सामान्य सिद्धांत विकसित हुए हैं। मुख्य सामान्य सिद्धांत नीचे दिए गए हैं:

  • निश्चित उद्देश्यों का सिद्धान्त (Principles of Definite Objectives) – इस सिद्धान्त का अर्थ है कि प्रत्येक पाठ का एक निश्चित उद्देश्य अवश्य होना चाहिए। यह उद्देश्य स्पष्ट, निश्चित तथा पूर्ण परिभाषित होना चाहिए। निश्चित उद्देश्य शिक्षक को प्रभावशाली ढंग से पाठ पढ़ाने में और छात्रों को सफलतापूर्वक पढ़ने में मदद करता है। बिना स्पष्ट उद्देश्यों के पढ़ाना शिक्षण नहीं होता।
  • अनुकूलता का सिद्धान्त (Principles of Adaptability and Flexibility)- शिक्षण प्रक्रिया एक जीवन्त क्रिया है जिसे छात्र और शिक्षक मिलकर करते हैं। अतः इसे परिस्थितियों एवं तत्वों के अनुसार लचीला होना चाहिए तभी यह छात्रों के अनुकूल बन सकती है। इसके लिए शिक्षक को सृजनात्मक तथा सूझबूझ मुक्त होना चाहिए जो आवश्यकताओं के अनुसार शिक्षण में परिवर्तन ला सके।
  • सक्रियता का सिद्धान्त (Principle of Activeness)- शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक और छात्रों के मध्य अन्तः क्रिया होती है। शिक्षक का कर्तव्य है कि वह शिक्षण में क्रियाशीलता बनाए रखे, जिससे छात्र सक्रिय होकर उसमें भाग ले सकें। इसके लिए शिक्षक को चाहिए कि वह छात्रों की मूल प्रवृत्तियों एवं इन्द्रिय संवेदनाओं (Sense) का अधिकतम प्रयोग करे तथा प्रत्येक सैद्धान्तिक ज्ञान का प्रयोगात्मक पक्ष मी प्रस्तुत करे एवं छात्रों को स्वयं करके सीखने के अवसर प्रदान करे। छात्र जितनी सक्रियता से सीखेंगे, शिक्षण उतना ही अधिक प्रभावशाली होगा।
  • जनतन्त्रीय व्यवहार का सिद्धान्त (Principle of Democratic Behaviour)- छात्र के व्यक्तित्व के विकास हेतु जनतन्त्रीय व्यवस्था उत्तम मानी गई है क्योंकि यह उन्हें स्वचिन्तन तथा स्वतन्त्र अभिव्यक्त के अवसर प्रदान करती है। साथ ही उनमें आत्मविश्वास, आत्म-गरिमा, आत्म सम्मान आदि गुणों का विकास करती है। अतः शिक्षक को कक्षा में जनतन्त्रीय प्रणाली अपनानी चाहिए, तानाशाही नहीं।
  • पूर्व अनुभवों का सिद्धान्त (Principle of Past Experiences) – शिक्षक सर्वप्रथम छात्रों के पूर्वज्ञान तथा पूर्व व्यवहार एवं पूर्व अनुभवों की जानकारी प्राप्त करता है और इन्हीं के आधार पर नवीन ज्ञान प्रदान करता है। इससे शिक्षण प्रक्रिया काफी सरल, सुगम तथा उपादेय हो जाती है।
  • बाल केन्द्रितता का सिद्धान्त – एक अच्छा शिक्षक सदैव अपने शिक्षण को छात्रों की आवश्यकताओं, क्षमताओं, रुचियों, अभिरुचियों, आयु तथा मानसिक स्तर आदि के अनुसार व्यवस्थित करता है। इस प्रकार वह शिक्षण को बाल केन्द्रित बनाता है।
  • व्यक्तिगत विभिन्नता का सिद्धान्त (Principle of Individual Differences)- प्रत्येक छात्र की बुद्धि, स्वभाव, योग्यताएँ रुचि एवं क्षमताएँ एक समान नहीं होती है। उनमें विभिन्नता होती है। एक अच्छा शिक्षक अपने शिक्षण को प्रभावशाली बनाने के लिए छात्रों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं को दृष्टिगत रखते हुए ही शिक्षण व्यवस्था करता है।
  • वास्तविक जीवन से सम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of Living with Actual Life)- एक उत्तम शिक्षक, शिक्षण करते समय क्रिया तथा विषय वस्तु को छात्रों के जीवन से सम्बन्धित करके

शिक्षण के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त (Psychological Principles of Teaching)

आजकल शिक्षा ने ‘बाल केन्द्रित शिक्षा’ का रूप ले लिया है। ‘बाल केन्द्रित शिक्षा’ की अवधारणा विज्ञान की देन है, जिसका अर्थ है बच्चों को उनकी योग्यताओं, रुचियों, मानसिक योग्यताओं, उनकी उम्र आदि के आधार पर शिक्षा प्रदान करना। बच्चों के मनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए मनोवैज्ञानिकों ने कई सिद्धांतों का निर्माण किया है। प्रभावी शिक्षण. नीचे कुछ महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक सिद्धांत दिए गए हैं जिनके बारे में एक शिक्षक को जानना चाहिए-

  • अभिप्रेरणा एवं रुचि का सिद्धान्त (Principle of Motivation and Interest)- अभिप्रेरणा तथा रुचि, शिक्षण प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस सिद्धान्त के अनुसार शिक्षक और छात्र देनेही अभिप्रेरित होकर रुचिपूर्वक कार्य करते हैं। फलस्वरूप अधिगम प्रक्रिया अधिगम सजीव प्रभावशाली होती है।
  • अभ्यास एवं आवृत्ति का सिद्धान्त (Principle of Repetition and Exercise) – यह सर्वविदित तथ्य है कि यदि अर्जित ज्ञान का अभ्यास एवं पुनरावृत्ति की जाये तो छात्र सरलता से स्मरण रख सकते है। अतः शिक्षण प्रक्रिया में पुनरावृत्ति तथा अभ्यास को अवश्य स्थान दिया जाना चाहिए।
  • तत्परता को सिद्धान्त (Principle of Readiness) – छात्रों को जो कुछ भी पढ़ाया जाये उसके लिए उनमें मानसिक तत्परता अवश्य होनी चाहिए। मानसिक तत्परता के अभाव में छात्र भली-भाँति सीखने में रुचि नहीं लेते। पढ़ाते समय छात्रों की मानसिक परिपक्वता का अवश्य ध्यान रखा जाना चाहिए।
  • परिवर्तन, विश्राम तथा मनोरंजन का सिद्धान्त (Principle of Change, Rest and Recreation)– बोरियत होने पर शिक्षण कार्य पिछड़ने लगता है। अतः शिक्षण में उद्दीपन परिवर्तन, विषय वस्तु में बदलाव, शिक्षण विधियों में विभिन्नता का प्रावधान होना चाहिए। साथ ही शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में आवश्यकतानुसार विश्राम तथा मनोरंजन की भी व्यवस्था होनी चाहिए, जिससे कि छात्रों के मस्तिष्क को विश्राम मिल सके और फिर वे अधिक ताजा होकर आगे के अधिगम के लिए तैयार हो सकें।
  • प्रतिपुष्टि/पुनर्बलन का सिद्धान्त (Principle of Feedback and Reinforcements)—छात्रों को पुनबर्लन देकर शिक्षण को प्रभावशाली बनाया जा सकता है। उन्हें उनके अच्छे व्यवहार के लिए पुरस्कृत किया जाना चाहिए। उनके द्वारा किये गए कार्यों की प्रगति के विषय में सूचनायें दी जानी चाहिए। छात्र ऐसी स्थिति में कार्य जल्दी समझते हैं और दुहराते हैं। उनमें शिक्षक अच्छी आदतों का विकास कर सकता है। इस प्रकार प्रतिपुष्टि एवं पुनर्बलन का प्रयोग करके शिक्षण अधिगम प्रक्रिया ko प्रभावशाली बनाया जाता है।
  • परिवर्तन, विश्राम व मनोरंजन का सिद्धान्त (Principle of Change, Rest and Recreation)- शिक्षण कार्य यदि ज्यादा लम्बा हो जाता है तो छात्रों को थकान होने लगती है, उनकी रुचि पढ़ने में कम हो जाती है। ऐसी स्थिति में यदि विषय-वस्तु शिक्षण विधियों या शिक्षण वातावरण में परिवर्तन लाया जाए अथवा छात्रों के विश्राम, मनोरंजन की व्यवस्था की जाये तो शिक्षण प्रभावशाली हो जाता है।
  • ज्ञानेन्द्रिय प्रशिक्षण का सिद्धान्त (Principle of Imparting Training to Senses) – प्रभावशाली शिक्षण के लिए आवश्यक है कि ज्ञानेन्द्रियों को उचित प्रशिक्षण दिया जाए। अधिगम के विभिन्न पक्षों के लिए विभिन्न प्रकार की क्षमतायें चाहिए, जो ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ही प्राप्त हो सकती है। ज्ञानेन्द्रियों द्वारा शिक्षा प्रभावशाली अधिगम की कुंजी है। अतः शिक्षक को चाहिए कि वह छात्रों को पढ़ाते समय ज्ञानेन्द्रियों को आवश्यकतानुसार शिक्षण का आधार मानकर पढ़ाये।
  • स्व-अधिगम सिद्धान्त (Principle of Encouraging Self-Learning)- यदि छात्र स्वयं प्रयास करके सीखते हैं तो उनका सीखना ज्यादा प्रभावशाली होता है। शिक्षक को चाहिए कि वह छात्रों को इस प्रकार निर्देशित करें कि वे स्वयं अधिगम की ओर प्रयास करें जिससे उनमें ज्यादा आत्म-विश्वास तथा आत्म-निर्भरता विकसित हो। स्व-अधिगम की प्रवृत्ति उचित परिस्थितियों तथा प्रशिक्षण द्वारा डाली जानी चाहिए।

शिक्षण के सूत्र (Maxims of Teaching)

आज शिक्षक अपने ज्ञान और अनुभवों की व्याख्या विद्यार्थियों के मन तक पहुंचाने में सदैव सफल रहता है। छात्रों को उनकी रुचि और जिज्ञासा के अनुसार विषय वस्तु का ज्ञान प्रदान करना, ज्ञान को स्पष्ट रूप से समझाना और ऐसी कक्षा परिस्थितियाँ और कक्षा वातावरण बनाना जिसमें छात्रों को अधिकतम शिक्षण गतिविधियाँ और सीखने के अनुभव मिल सकें, एक सफल और प्रभावी शिक्षक के महत्वपूर्ण पहलू हैं। और आवश्यक कार्य हैं. समय-समय पर शिक्षण के क्षेत्र में विभिन्न खोजों के आधार पर अनुभवी शिक्षकों, मनोवैज्ञानिकों एवं शिक्षाविदों ने अपने अनुभवों एवं निर्णयों को सूत्र रूप में प्रस्तुत किया है। सूत्रों के रूप में दिये गये इन अनुभवों एवं निर्णयों को शिक्षा सूत्र कहा गया। इनके प्रयोग से शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया अधिक प्रभावी एवं वैज्ञानिक हो जाती है। ये शिक्षण सूत्र सीखने की प्रत्येक स्थिति में उपयोगी सिद्ध होते हैं। कुछ महत्वपूर्ण शिक्षण सूत्र नीचे दिये गये हैं। ये सूत्र सर्वमान्य एवं विश्वसनीय माने जाते हैं-

  • ज्ञात से अज्ञात की ओर ( Known to Unknown)- यह सूत्र हमें बताता है कि जो छात्रों को ज्ञात है, छात्रों को जानकारी है अथवा छात्रों का पूर्व ज्ञान है, उसी के आधार पर नवीन ज्ञान प्रदान करना चाहिए। दूसरे शब्दों में छात्रों को पहले वे बातें बतानी चाहिए जो छात्रों को ज्ञात है। फिर इनका सम्बन्ध नवीन (अज्ञात) ज्ञान से करना चाहिए। इस प्रकार पढ़ाने से छात्र सरलता से अज्ञात या नया ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। एक अच्छा शिक्षक सदैव छात्रों के पूर्व ज्ञान पर नवीन ज्ञान आधारित करके पढ़ाता है।
  • सरल से जटिल की ओर (From Simple to Complex) – पाठ्य सामग्री को संगठित करते समय शिक्षक को चाहिए कि वे सरल प्रत्यय छात्र को पहले बतायें और क्रमानुसार कठिन या जटिल प्रत्ययों को उनके बाद जब छात्र सरल प्रत्यय सीख लेते हैं तो बाद में कठिन प्रत्यय भी सीख जाते हैं। इस प्रकार से छात्रों की रुचि शिक्षण प्रक्रिया में बनी रहती है।
  • अनिश्चित से निश्चित की ओर (From Indefinite to Definite)- प्रारम्भ में छात्रों के विचारों में अस्पष्टता तथा अनिश्चितता होती है। धीरे-धीरे उनमें परिपक्वता आती है, नये-नये अनुभव मिलते हैं और वे स्पष्ट तथा निश्चित विचारों को स्वीकारने लगते हैं। एक अच्छा शिक्षक छात्रों की धुंधली तथा अनिश्चित धारणाओं और विचारों को निश्चयात्मकता प्रदान करता है।
  • अनुभूत से युक्तियुक्त की ओर (From Emperical to Rational)– शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का प्रारम्भ अनुभूत ठोस अनुभवों से किया जाना चाहिए क्योंकि ठोस अनुभूत सत्यों की अनुभूति के बाद ही युक्तियुक्त चिन्तन आता है। शिक्षकों को छात्रों के समक्ष पहले प्रत्यक्ष अनुभव तथा उदाहरण प्रस्तुत करने चाहिए फिर उसे छात्रों के इन प्रत्यक्ष अनुभवों तथा उदाहरणों को तर्कयुक्त बनाने का प्रयास करना चाहिए।
  • मूर्त से अमूर्त की ओर (From Concrete to Abstract)- छात्र पहले मूर्त (स्थल) वस्तुओं से परिचित होता है, उनके बारे में जानता है फिर इसके बाद वह इनसे सम्बन्धित सूक्ष्म (अमूर्त) विचारों को ग्रहण करता है। मूर्त तथ्य सरल, वस्तुनिष्ठ तथा बोधगम्य होते हैं जबकि अमूर्त तथ्य काल्पनिक. कठिन, जटिल व भ्रामक होते हैं। अतः शिक्षा शुरू करते समय छात्रों को पहले सरल तथा मूर्त व स्थूल पदार्थों के विषय में ज्ञान देना चाहिए. बाद में उन्हें अमूर्त या सूक्ष्म तथ्यों के विषय में जानकारी।
  • विश्लेषण से संश्लेषण की ओर (From Analysis to Synthesis)- किसी भी समस्या का विश्लेषण करने से ही छात्रों की समस्या के बारे में स्पष्ट तथा निश्चित ज्ञान प्राप्त होता है। विश्लेषण से प्राप्त सूचनाओं को जोड़कर समग्र रूप से समझना, सश्लेषण का उपयोग करना है। एक अच्छा शिक्षक पहले छात्रों के विचारों का विश्लेषण करके ज्ञान प्रदान करता है, फिर संश्लेषण के द्वारा उस ज्ञान को स्थायित्व प्रदान करता है। विश्लेषण व संश्लेषण दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। ये दोनों ही छात्रों को स्पष्ट तथा निश्चित ज्ञान देने में सहायक हैं।
  • विशिष्ट से सामान्य की ओर (From Particular to General) – इस सूत्र का अभिप्राय है कि पहले छात्रों के सामने विशिष्ट उदाहरण प्रस्तुत किये जायें और बाद में उन्हीं उदाहरणों के माध्यम से सामान्य सिद्धान्त या सामान्य नियम निकलवाये जायें। एक अच्छा शिक्षक पहले विशिष्ट तथ्य उदाहरण छात्रों के समक्ष प्रस्तुत करता है और फिर उनके आधार पर छात्रों को सामान्य नियम या सिद्धान्त तक पहुँचने के लिए प्रोत्साहित करता है।
  • मनोवैज्ञानिक से तार्किक या तर्कात्मक क्रम की ओर (From Psychological to Logical)- शिक्षण प्रक्रिया मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के आधार पर दी जाती है। बालक की रुचि योग्यताओं, जिज्ञासा आवश्यकता व परिपक्वता के अनुसार पाठ्यक्रम शिक्षण विधियों व शिक्षण सहायक सामग्री का प्रयोग किया जाना चाहिए। तर्कात्मक विधि के अनुसार ज्ञान पाठ को तर्कसम्मत ढंग से विभिन्न वर्गों में विभाजित किया जाता है और एक-एक करके छात्रों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। शिक्षक को चाहिए कि वह पहले मनोवैज्ञानिक ढंग से शिक्षण आयोजित करे और फिर धीरे-धीरे उनके मानसिक विकास के अनुकूल ज्ञान को तर्कसम्मत क्रमानुसार शिक्षण को लेकर चले।
  • आगमन से निगमन की ओर (From Induction to Deduction)- आगमन विधि में प्रारम्भ में छात्रों के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं और फिर नियमों को निकाला जाता है. जबकि निगमन में इसके विपरीत पहले नियम प्रस्तुत किये जाते हैं, बाद में उदाहरणों की सहायता से उन नियमों की सत्यता परखी जाती है। आगमन नये ज्ञान की खोज में सहायक होता है, जबकि निगमन इन खोजों के फलस्वरूप प्राप्त होता है। एक उत्तम शिक्षक अपना शिक्षण आगमन से प्रारम्भ करता है और निगमन पर समाप्त करता है।
  • पूर्ण से अंश की ओर (From Whole to Parts) – इस सूत्र के अनुसार शिक्षण में पहले विषय-वस्तु को पूर्ण (समग्र) रूप में छात्रों के सामने रखा जाये और फिर धीरे-धीरे उसके विभिन्न भागों के विषय में ज्ञान दिया जाए तो छात्र ज्यादा प्रभावशाली ढंग से सीखते हैं। पूर्णं का परिमाण छात्र के ज्ञान। की वृद्धि के साथ-साथ बढ़ता चला जाता है। उदाहरणार्थ छात्र को पहले छोटी-छोटी कविताएँ ‘पूर्ण’ रूप से तैयार कराई जाती हैं। बाद में एक-एक लाइन का धीरे-धीरे उनका अर्थ स्पष्ट किया जाता है। शिक्षक पहले ‘कम्प्यूटर का पूर्ण आइडिया (विचार) देता है फिर उसके विभिन्न अवयवों पर प्रकाश डालता है।
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