विकास के सिद्धान्त | Principles of Development B.Ed Notes by Sarkari Diary

विकास के सिद्धान्त वे सिद्धान्त हैं जो बताते हैं कि कैसे और क्यों जीवित प्राणी विकसित होते हैं। विकास के सिद्धांत वे सिद्धांत हैं जो बताते हैं कि मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं का विकास कैसे होता है। इन सिद्धांतों का उपयोग बच्चों के विकास को समझने और उनका समर्थन करने के लिए किया जा सकता है।

विकास के सिद्धान्त (Principles of Development)

मानव विकास की प्रक्रिया गर्भावस्था से ही प्रारंभ हो जाती है। गर्भावस्था के दौरान जो विकास शुरू होता है वह जीवन भर चलता रहता है। अवस्था परिवर्तन के साथ-साथ मनुष्य के अंदर कई परिवर्तन होते रहते हैं। ये परिवर्तन कुछ सिद्धांतों के अनुरूप हैं। व्यक्तिगत विकास के कई मनोवैज्ञानिक सिद्धांत हैं।

मुख्य सिद्धान्तों का संक्षिप्त उल्लेख यहाँ किया जा रहा है-

  • निरन्तरता का सिद्धान्त (Principle of Continuity) – मानव विकास एक सतत् प्रक्रिया है जो जन्म से मृत्यु तक निरन्तर चलती रहती है तथा उसमें कोई भी विकास आकस्मिक ढंग से नहीं होता है, धीरे-धीरे होता है। स्किनर के अनुसार विकास प्रक्रियाओं की निरन्तरता का सिद्धान्त केवल इस तथ्य पर बल देता है कि व्यक्ति में कोई आकस्मिक परिवर्तन नहीं होता।
  • व्यक्तिगतता का सिद्धान्त (Principle of Individuality)- यद्यपि मानव विकास का एक समान पैटर्न है, आनुवंशिकता और पर्यावरण में अंतर के कारण प्रत्येक व्यक्ति के विकास में कुछ भिन्नता होती है। जिस प्रकार कोई भी दो व्यक्ति पूर्णतः एक जैसे नहीं हो सकते, उसी प्रकार दो भिन्न व्यक्तियों का विकास भी पूर्णतः एक जैसा नहीं होता। इसके अलावा लड़के और लड़कियों के विकास में भी अंतर होता है। उदाहरण के लिए, लड़कियों का शारीरिक विकास लड़कों के शारीरिक विकास से बहुत अलग होता है।
  • परिमार्जिता का सिद्धान्त (Principle of Modifiability) – परिमार्जिता के सिद्धान्त के अनुसार बालक के विकास की दिशा और गति का परिमार्जन किया जा सकता है। इस सिद्धान्त का शैक्षिक निहितार्थ अत्यधिक महत्वपूर्ण है। शिक्षा का उद्देश्य है- बालक का सन्तुलित और सर्वांगीण विकास करना।
  • विकास क्रम का सिद्धान्त (Principle of Development Sequence) – यद्यपि विकास की प्रक्रिया गर्भावस्था से मृत्यु पर्यन्त निरन्तर चलती रहती है परन्तु इस विकास का एक निश्चित क्रम होता है। सबसे पहले बालक का गामक और भाषा सम्बन्धी विकास होता है। इसी प्रकार गामक विकास में बच्चा पहले-पहले हाथ-पैर पटकता है फिर पलटता है फिर बैठता है उसके बाद खड़ा होता व चलता है।
  • सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धान्त (Principle of General to Specific Responses) – मनोवैज्ञानिकों ने यह भी स्पष्ट किया है कि मनुष्य का विकास सामान्य प्रतिक्रियाओं से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं की ओर होता है।
  • परस्पर सम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of Interrelation)- मनुष्य के शारीरिक, मानसिक, भाषाई, भावनात्मक, सामाजिक और चारित्रिक सभी प्रकार के विकास में परस्पर संबंध होता है। वे एक-दूसरे पर निर्भर हैं और एक के साथ बाकी सभी का विकास होता है। उदाहरण के लिए, जैसे-जैसे किसी व्यक्ति के शरीर के बाहरी और आंतरिक अंग बढ़ते हैं, उनका आकार और वजन बढ़ता है, वैसे-वैसे उसके शरीर के अंगों की कार्यक्षमता भी विकसित होती है और जैसे-जैसे उसके शरीर के अंगों, विशेष रूप से ज्ञानेंद्रियों और मोटर अंगों का विकास होता है। जैसे-जैसे बच्चे की कार्यक्षमता बढ़ती है, उसका मानसिक, भाषाई, भावनात्मक, सामाजिक और चारित्रिक विकास भी होता है। हां, इसके लिए उचित माहौल और शिक्षा का उपलब्ध होना जरूरी है।
  • समान प्रतिमान का सिद्धान्त (Principle of Uniform Pattern) – समान प्रजाति के विकास के प्रतिमानों में समानता पायी जाती है। प्रत्येक प्रजाति चाहे वह पशु प्रजाति हो या मानव प्रजाति, अपनी प्रजाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करता है। संसार के समस्त भागों में मानव शिशुओं के विकास का प्रतिमान एक ही है।
  • वंशानुक्रम तथा वातावरण की अन्तः क्रिया का सिद्धान्त (Principle of Interaction of Heredity and Environment ) – इस सिद्धान्त के अनुसार बालक के विकास में वातावरण और आनुवांशिकता दोनों का सापेक्षिक महत्व होता है विकास दोनों की अन्तःक्रिया का परिणाम होता है। जैसे- किसी बीज में अन्तर्निहित क्षमताओं को प्रस्फुटित होने के लिए मिट्टी, खाद, पानी, हवा की आवश्यकता होती है उसी प्रकार बालक में आनुवांशिकता से जो क्षमताएँ उपस्थित होती हैं उन्हें अच्छे वातावरण द्वारा ही पूर्णरूप से विकसित किया जा सकता है इस प्रकार व्यक्ति के विकास के लिए वातावरण तथा आनुवांशिकता दोनों ही महत्वपूर्ण हैं।
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