भाषा नीतियाँ व किरत आयोग | Language Policies and Kirat Commission B.Ed Notes by SARKARI DIARY

करीब 63 साल पहले 15 अगस्त 1947 को भारत ब्रिटिश शासन से आजाद हुआ था. इसके तुरंत बाद 1948 में राधाकृष्णन आयोग के रूप में स्वतंत्र भारत का पहला शिक्षा आयोग नियुक्त किया गया। इस आयोग के अध्यक्ष प्रसिद्ध शिक्षाविद् डॉ. एस. राधाकृष्णन थे। जो बाद में भारत के राष्ट्रपति भी चुने गए। डॉ. राधाकृष्णन आयोग ने अपनी विस्तृत रिपोर्ट ब्रिटिश शासकों की भाषा में प्रस्तुत की थी। वह अपना लगभग सारा लेखन और अन्य औपचारिक कार्य अंग्रेजी में करते थे और बाद में भारत के राष्ट्रपति चुने गये। डॉ. राधाकृष्णन आयोग ने अपनी पूरी रिपोर्ट अंग्रेजी भाषा में ही प्रस्तुत की। उनके सभी भाषण भी अंग्रेजी में होते थे. आजादी के बाद ही हमारे देश ने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया। इसका मुख्य कारण यह था कि उस समय देश की केवल 2% आबादी ही अंग्रेजी भाषा पढ़ने, लिखने और समझने में सक्षम थी।

यह देश के लिये स्वयं में ही विडम्बना ही थी कि राष्ट्र का प्रथम नागरिक (राष्ट्रपति) ही अपनी राष्ट्रभाषा को समझने और बोलने के योग्य ही नहीं था।

अगर हम वर्तमान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के उस वक्त के संबोधन की बात करें जब उन्हें ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, लंदन में डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया था। तब यह आशा करना अस्वाभाविक नहीं था कि इस अवसर पर उन्हें अपने देश और उसके इतिहास का गौरव और भी ऊँचा उठाने का प्रयास करना चाहिए था। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में दिए गए उनके भाषण के मूल पाठ में कहा गया है कि लोकतंत्र, संविधान, कानून, संपूर्ण राज्य और धर्मनिरपेक्षता के सभी सिद्धांत भारत को अंग्रेजों की देन हैं।

उन्होंने अंग्रेजों की प्रशंसा में आगे कहा कि जब आपने भारत पर शासन किया तब भी आपका सूर्य अस्त नहीं होता था। आप समस्त देशों के स्वामी थे। आज भी तुम्हारा सूरज नहीं डूबता. अंग्रेजी भाषा विश्व भाषा बनी और हमने भी उसी भाषा को अपनाकर आपके सूर्य को अस्त होने से बचाया। अंग्रेजी अब हमारी भाषा बन गई है. यदि उनके पूरे व्याख्यान का भौतिक विश्लेषण किया जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि वे ब्रिटिश शासन के विरुद्ध स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा किए गए संघर्ष के प्रति क्षमाप्रार्थी हैं। मनमोहन सिंह कुछ भी कहें, अंग्रेजी अभी पूरे यूरोप की भाषा नहीं बन पायी है. पूर्वी यूरोप में कोई भी देश इसे नहीं अपनाता। पश्चिमी यूरोप के विकसित देश जर्मनी, फ़्रांस, बेल्जियम और हॉलैंड इस भाषा के कट्टर विरोधी हैं। चीन और भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देशों में भी एक से दो प्रतिशत लोग अंग्रेजी के जानकार हैं। उनमें से अधिकांश के घरेलू जीवन की भाषा भी अंग्रेजी नहीं है। जापान और रूस जैसे देशों को इस भाषा से सख्त नफरत है। अंग्रेजी कभी भी पूर्वी एशिया, मध्य और उत्तरी एशिया की भाषा नहीं रही। मनमोहन सिंह का भाषण इस बात का प्रमाण है कि मैकाले ब्रिटिश भारतीयों को सामान्य ज्ञान और स्वभाव के साथ तैयार करने में सफल रहा है।

एक ओर अंग्रेजी की अनिवार्यता और दूसरी ओर उसे स्वाभाविक रूप से न सीख पाना, ये दोनों कारण मिलकर छात्रों में इतनी हीन भावना पैदा कर देते हैं कि वे भारतीय संस्कृति, सभ्यता और नैतिकता को लगभग भूल ही जाते हैं और उनके पास है ही नहीं। शिक्षा के मूल उद्देश्यों एवं विषयों की गहरी समझ। वे ज्ञान से वंचित हैं, जिसका परिणाम शैक्षिक गुणवत्ता में गिरावट के रूप में देखा जा रहा है। सबसे दुखद पहलू यह है कि विद्यार्थी अपनी मातृभाषा नहीं बल्कि अंग्रेजी को ठीक से नहीं अपना पाते, जिससे यह शिक्षा प्रणाली एक निरर्थक प्रयास बनकर रह जाती है। इस प्रकार की शिक्षा उद्देश्यहीन होने के कारण भटक जाती है।

भाषा समस्या के निदान हेतु शिक्षा नीतियाँ (EDUCATION POLICIES TO SOLVE LANGUAGE PROBLEM)

कुछ शिक्षाविदों का मानना है कि भारत की भाषा समस्या का सबसे अच्छा समाधान त्रिभाषा सूत्र है, लेकिन यह भारत की भाषा समस्या को हल करने के बजाय और अधिक जटिल बना देता है। इसका संबंध माध्यमिक स्तर पर भाषा शिक्षण नीतियों से है, यानी बुनियादी शिक्षा के बाद और विश्वविद्यालय की पढ़ाई से पहले माध्यमिक स्तर पर शिक्षण नीति क्या होनी चाहिए? लेकिन इससे पहले बुनियादी और विश्वविद्यालय स्तर पर भाषा नीतियों पर भी चर्चा जरूरी है.

  • बेसिक अथवा प्राथमिक शिक्षा की भाषा नीति- महात्मा गांधी ने बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा था कि यदि प्राथमिक या बौद्धिक स्तर की शिक्षा मातृभाषा में की जाए तो वह बच्चे के स्वभाव के लिए सर्वथा उपयुक्त होगी। 1947 ई. से पहले भी प्राथमिक स्तर पर शिक्षा का सर्वमान्य माध्यम मातृभाषा ही थी। कुछ पब्लिक स्कूल (जो पूर्णतः स्वतंत्र हैं) इसके अपवाद हो सकते हैं, लेकिन भारत के सभी राज्यों में इस स्तर की शिक्षा मातृभाषा में दी जाती है। प्राथमिक स्तर पर अन्य विषयों की पढ़ाई का माध्यम भी मातृभाषा ही होती है, इसलिए बुनियादी स्तर पर त्रिभाषा सूत्र का अधिक प्रयोग नहीं होता।
  • ताराचन्द समिति (1948) – इस समय भारत गणतन्त्र नहीं था और संघीय भाषा के विषय में भी कोई निर्णय नहीं हुआ था तथा इसी आधार पर ‘ताराचन्द समिति’ ने अपना यह सुझाव दिया कि उच्च प्राथमिक स्तर के पश्चात् मातृभाषा के अतिरिक्त संघीय भाषा को भी अनिवार्य बना दिया जाए। इस समिति ने माध्यमिक स्तर पर दो भाषाओं के अध्ययन के सुझाव दिये-
    • मातृभाषा,
    • अंग्रेजी या संघीय भाषा।
  • राधाकृष्णन् आयोग (1948-49) – इस आयोग का सुझाव था कि छात्रों को तीन भाषाओं का ज्ञान कराया जाए
    • मातृभाषा या प्रान्तीय भाषा
    • राज्य की भाषा
    • अंग्रेजी।
  • मुदालियर आयोग (1952)- मुदालियर आयोग ने छात्रों के लिये माध्यमिक स्तर पर दो भाषाओं के अध्ययन पर अपना सुझाव दिया।
    • मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा या मातृभाषा और एक शास्त्रीय भाषा का मिश्रित पाठ्यक्रम ।
    • निम्नलिखित में से चुनी जाने वाली एक अन्य भाषा ।
      • हिन्दी (उनके लिये जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं है)
      • प्रारम्भिक अंग्रेजी (उनके लिए जिन्होंने मिडिल स्तर पर इसका अध्ययन नहीं किया
      • उच्च अंग्रेजी (उनके लिये जिन्होंने पहले अंग्रेजी का अध्ययन किया है।)
      • हिन्दी के अतिरिक्त एक अन्य भारतीय भाषा।
      • अंग्रेजी के अतिरिक्त एक अन्य आधुनिक भाषा।
      • एक शास्त्रीय भाषा।
  • भावात्मक एकता समिति, 1962- इस समिति ने ‘त्रिभाषा सूत्र’ का समर्थन किया, जिसका वर्णन ‘त्रिभाषा सूत्र के अन्तर्गत किया गया है।
  • कोठारी आयोग 1964- इस आयोग ने निम्नलिखित त्रिभाषा सूत्र प्रतिपादित किया-
    • मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा
    • संघ की राजभाषा या सह-राजभाषा।
    • एक आधुनिक भारतीय भाषा या विदेशी भाषा जो न. (i) और (ii) के अन्तर्गत छात्र द्वारा न चुनी गई हों और जो शिक्षा का माध्यम न हो।
  • विश्वविद्यालयीय भाषा नीति- विश्वविद्यालयों में भाषाएँ तो सभी पढ़ाई जाती है, चाहे वे प्रान्तीय हो, राष्ट्रीय हो अथवा विदेशी उच्च शिक्षा के शिक्षण के माध्यम के रूप में भाषा समस्या उठती है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित तथ्यों पर ध्यान देना होगा-
    • 1857 में हमारे देश में सर्वप्रथम तीन विश्वविद्यालय खुले, परन्तु इनमें किसी भारतीय भाषा को शिक्षण के माध्यम के रूप में स्वीकार करने पर विचार नहीं हुआ।
    • 1917 ई. में सैडलर की अध्यक्षता में कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग बना, जिसने 1919 में प्रत्येक भारतीय भाषा हेतु रीडर पद की सिफारिश की। परिणामतः भारत के अधिकांश विश्वविद्यालयों में भारतीय भाषाओं का उच्च अध्ययन-अध्यापन प्रारम्भ हुआ परन्तु समवेत रूप से शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी रही। स्वतंत्रता के बाद उच्च शिक्षा में गुणात्मक सुधार हेतु डॉ. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में विश्वविद्यालय आयोग नियुक्त हुआ। 1949 में इस आयोग ने उच्च शिक्षा में शिक्षण के माध्यम के रूप में मातृभाषाओं की सम्भावना तलाशने की सिफारिश की परन्तु कुछ समय तक के लिए अंग्रेजी को ही माध्यम बनाये रखने की भी बात कही, जिससे अंग्रेजी ही भाषा का माध्यम बनी रही।

1967 में शिक्षा मंत्री त्रिगुण सेन ने विश्वविद्यालयों में शिक्षा के माध्यम के रूप में क्षेत्रीय भाषाओं को अनिवार्य बनाने की बात कही। जिसका परिणाम यह है कि कुछ विश्वविद्यालय धीरे-धीरे अपनी मातृभाषाओं को अपना रहे हैं लेकिन गति अभी भी धीमी है। विश्वविद्यालयों या उच्च स्तरीय तकनीकी, तकनीकी और वैज्ञानिक शिक्षा का माध्यम हर जगह अंग्रेजी भाषा ही बनी हुई है और इस स्थिति का ‘त्रिभाषा सूत्र’ से कोई लेना-देना नहीं है।

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