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भारतीय राजव्यवस्था – ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

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भारतीय संविधान 26 जनवरी, 1950 को अपनाया गया, यह भारत के एक औपनिवेशिक क्षेत्र से संप्रभु गणराज्य बनने के स्थायी विजयी का प्रतीक है। यह एक जीवंत दस्तावेज़ है, जो दुनिया के दूसरे सबसे अधिक आबादी वाले देश की लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली को शासित करता है तथा साथ ही एक समावेशी दृष्टिकोण को व्यक्त करता है। यह देश में मौजूद व्यापक विविधता को एक सामान्य उद्देश्य की ओर अग्रसर करता है।

संविधान की आधारभूत विशेषताएं

विविधता का समावेश

भारतीय संविधान भारत की बहुआयामी विविधता का एक जीवंत आधार है।

भाषाओं, धर्मों, परंपराओं और संस्कृतियों की अद्भुत विविधता के बावजूद, इसने राष्ट्र को एक साथ बांधने वाली एक एकीकृत शक्ति के रूप में कार्य किया है।

अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा

भारतीय संविधान के प्रमुख सिद्धांतों में से एक यह है कि यह नागरिकों के अधिकारों को सुरक्षा प्रदान करता है।

यह मौलिक अधिकारों की गारंटी देता है तथा यह किसी भी सरकार की शक्ति अथवा कार्यावली को अधिक महत्व दिए बिना सभी के लिए स्वतंत्रता, न्याय एवं निष्पक्षता की रक्षा के संदर्भ में स्पष्ट सीमाएँ निर्धारित करता है।

संविधान का मूल

भारतीय संविधान, हालांकि उत्तर-औपनिवेशिक समय की रचना है, लेकिन उद्भव की प्रक्रिया ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन काल में

ही शुरू हो गई थी। इस दौरान हुए विधायी विकास ने व्यापक दस्तावेज़ के लिए आधार तैयार किया, जो बाद में भारतीय संविधान बना।

लोकतांत्रिक अधिकारों की उत्पत्ति

सार्वभौमिक सुरक्षाः भारतीय संविधान गैर-भारतीय नागरिकों सहित सभी मनुष्यों को लोकतांत्रिक अधिकार प्रदान करता है।

लोकतांत्रिक विकासः औपनिवेशिक काल के दौरान शुरू की गई लोकतांत्रिक संस्थाओं और मूल्यों ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन द्वारा

समर्थित लोकतांत्रिक शासन के सिद्धांतों की नींव रखी।

भारतीय संविधान का विकासः प्रमुख अधिनियमों और सुधारों के माध्यम से प्रक्रिया की शुरुआत

1773 का रेगुलेटिंग एक्ट

बंगाल का गवर्नर-जनरलः इस अधिनियम द्वारा बंगाल के गवर्नर को बंगाल का गवर्नर जनरल’ पद नाम दिया गया एवं उसकी सहायता

के लिए एक चार सदस्यीय कार्यकारी परिषद का गठन किया गया।

बॉम्बे और मद्रास प्रेसीडेंसी पर नियंत्रण: इस अधिनियम ने बॉम्बे और मद्रास प्रेसीडेंसी के गवर्नरों को बंगाल के गवर्नर जनरल के अधीन कर दिया।

सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना: इस अधिनियम के अंतर्गत कलकत्ता में 1774 में उच्चतम न्यायालय की स्थापना की गई।

महत्वः यह अधिनियम महत्वपूर्ण था, क्योंकि इसने पहली बार कंपनी के राजनीतिक और प्रशासनिक कार्यों को मान्यता दी तथा भारत में एक केंद्रीय प्रशासन की नींव रखी।

1784 का पिट्स इंडिया एक्ट

नियंत्रण बोर्ड की स्थापनाः इस अधिनियम में कंपनी के नागरिक, सैन्य और राजस्व मामलों पर नियंत्रण रखने के लिए एक नियंत्रण बोर्ड की स्थापना की गयी।

गवर्नर-जनरल को अधिक शक्तियाँः गवर्नर जनरल की सहायता के लिए कमांडर-इन-चीफ सहित तीन सदस्यों की एक परिषद की

व्यवस्था की गई, तथा बॉम्बे और मद्रास की प्रेसीडेंसी को गवर्नर जनरल के अधीन कर दिया गया। महत्वः इस अधिनियम में भारत में कंपनी के अधीन क्षेत्रों को पहली बार ‘ब्रिटिश आधिपत्य का क्षेत्र कहा गया तथा ब्रिटिश सरकार को

भारत में कंपनी के कार्यों और इसके प्रशासन पर पूर्ण नियंत्रण प्रदान किया गया।

चार्टर अधिनियमों का युगः पिट्स इंडिया अधिनियम के बाद 1793 व 1813 के चार्टर अधिनियमों से शुरू होकर चार्टर अधिनियमों की एक श्रृंखला आई, जिन्होंने मुख्य रूप से कंपनी के व्यापारिक और वाणिज्यिक कार्यों को विनियमित किया। 1833 का चार्टर अधिनियम

शक्ति का केंद्रीकरण: बंगाल के गवर्नर जनरल को भारत का गवर्नर जनरल बनाया गया, जिसे संपूर्ण ब्रिटिश भारत के लिए विशेष विधायी शक्तियाँ दी गईं।

एकाधिकार का अंत: कंपनी का चीन और चाय पर व्यापार का एकाधिकार भी समाप्त हो गया।

सिविल सेवाओं के लिए खुली प्रतिस्पर्धाः अधिनियम में सिविल सेवकों के चयन के लिए खुली प्रतिस्पर्धा की एक प्रणाली शुरू करने का प्रयास किया गया।

दासता को खत्म करने की दिशा में कदमः अधिनियम में प्रशासन से दासता की स्थिति में सुधार करने तथा दासता (जिसे 1843 में समाप्त कर दिया गया था) को समाप्त करने को कहा गया।

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इस अधिनियम से भारतीय राजनीति में सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व की अवधारणा की शुरुआत हुई।

पहली बार, इसने सांप्रदायिक आधार पर विभाजित प्रतिबंधित और गैर-प्रतिनिधित्व वाले मतदाताओं के माध्यम से केंद्रीय और प्रांतीय स्तरों पर शासन में भारतीयों को शामिल किया।

भारत शासन अधिनियम, 1919/ मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार

कार्यकारी परिषद में भारतीय सदस्यः इसके अनुसार वायसराय की कार्यकारी परिषद के छः सदस्यों में से तीन सदस्यों का भारतीय होना आवश्यक था।

द्विसदनीय विधानमंडलः द्विसदनीय विधानमंडल विधान सभा व राज्यों की परिषद की स्थापना की गई।

विकेंद्रीकरणः इस अधिनियम द्वारा केंद्रीय व प्रांतीय विषयों की सूची की पहचान कर एवं उन्हें पृथक कर प्रांतों पर केंद्रीय नियंत्रण कम कर दिया गया।

प्रांतों में द्वैध शासनः प्रांतीय स्तर पर द्वैध शासन लागू किया गया, जिसमें प्रांतीय विषयों को दो भागों हस्तांतरित और आरक्षित में विभाजित किया गया। केंद्रीय लोक सेवा आयोग: इसमें एक लोक सेवा आयोग के गठन का प्रावधान किया गया, जिससे 1926 में केंद्रीय लोक सेवा आयोग की स्थापना हुई।

महत्वः इस अधिनियम ने प्रांतों पर केंद्रीय नियंत्रण को कम कर दिया, जो भारत में संसदीय लोकतंत्र के विकास में एक महत्वपूर्ण कदम था।

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