Home / B.Ed / M.Ed / DELED Notes / दलित आन्दोलन | Dalit Movement B.Ed Notes

दलित आन्दोलन | Dalit Movement B.Ed Notes

Last updated:
WhatsApp Channel Join Now
Telegram Channel Join Now

दलित शब्द का शाब्दिक अर्थ है- दमन किया हुआ। इसके तहत वह हर व्यक्ति आ जाता है। जिसका शोषण उत्पीड़न हुआ है।

डॉ. भीमराव अंबेडकर के आन्दोलन के बाद यह शब्द, हिन्दू समाज व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर स्थित हजारों वर्षों से अस्पृश्य जातियों के लिए सामूहिक रूप से प्रयुक्त होता है। भारतीय संविधान में इन जातियों को अनुसूचित जाति नाम से अभिहित किया गया है। भारत में दलित आन्दोलन की शुरुआत ज्योतिराव गोविंद राव फुले के नेतृत्व में हुई। ज्योतिबा जाति से माली थे और समाज के ऐसे तबके से सम्बन्ध रखते थे जिन्हें उच्च जाति के समान अधिकार प्राप्त नहीं थे। इसके बावजूद ज्योतिबा फुले ने हमेशा ही तथाकथित ‘नीची जाति के लोगों के अधिकारों की पैरवी की। भारतीय समाज में ज्योतिबा का सबसे पहला प्रयास दलितों की शिक्षा थी।

दलित आन्दोलन | Dalit Movement B.Ed Notes

ज्योतिबा ही वह पहले शख्स थे जिन्होंने दलितों के अधिकारों के साथ-साथ दलितों की शिक्षा की भी पैरवी की। इसके साथ है ज्योतिबा ने महिलाओं की शिक्षा के लिए सराहनीय कदम उठाये। भारतीय इतिहास में वही पहले व्यक्ति थे जिन्होंने दलितों की शिक्षा के लिए न केवल विद्यालय की वकालत की बल्कि सबसे पहले दलित विद्यालय की भी स्थापना की। उन्होंने भारतीय समाज में दलितों के लिए एक ऐसा मार्ग प्रशस्त किया जिस पर आगे चलकर दलित समाज और अन्य समाज के लोगों ने चलकर दलितों के अधिकारों की कई लड़ाइयाँ लड़ी।

Also Read:  Sarva Shiksha Abhiyaan - 2001: Objectives, Functions & More.

इस प्रकार ज्योतिबा फुले ने भारत में दलित आन्दोलनों का सूत्रपात किया परन्तु ऐसे समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का काम बाबा साहब अम्बेडकर ने किया। इसके साथ ही इसमें बौद्ध धर्म का भी योगदान थी। ईसापूर्व 600 ईसवीं में ही बौद्ध धर्म ने समाज के निचले तबकों के अधिकारों के लिए आवाज उठाई। बुद्ध ने उसके साथ ही बौद्ध धर्म के जरिए एक सामाजिक और राजनैतिक क्रांति लाने की भी पहल की। इसे राजनीतिक क्रान्ति इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि उस समय सत्ता पर धर्म का आधिपत्य था और समाज की दिशा धर्म के द्वारा ही तय होती थी। ऐसे में समाज के निचले तबके को क्रांति की जो दिशा बुद्ध ने दिखाई वह आज भी प्रासंगिक है। भारत में चार्वाक के बाद बुद्ध ही ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने ब्राह्मणवाद के खिलाफ न केवल आवाज उठाई बल्कि एक दर्शन भी दिया जिससे कि समाज के लोग दासता की जंजीरों से मुक्त हो सके।

आज दलितों को भारत में जो भी अधिकार मिले है उसकी पृष्ठभूमि इसी शासन की देन थे। यूरोप में हुए पुनर्जागरण और ज्ञानोदय आन्दोलनों के बाद मानवीय मूल्यों का महिमामंडन हुआ। यह मानवीय मूल्य यूरोप की क्रांति के आदर्श बने। इन आदर्शो के जरिए ही यूरोप में एक ऐसे समाज की रचना की गई जिसमें मानवीय मूल्यों को प्राथमिकता दी गई। इसका सीधा असर भारत पर भी पड़ा जिसे हम भारतीय संविधान की प्रस्तावना से लेकर सभी अनुच्छेद जो मानवीय अधिकारों की रक्षा करते नजर आते हैं मैं देख सकते हैं।

Also Read:  शिक्षण और अधिगम की अवधारणा | Concept of Teaching and Learning B.Ed Notes

भारत में दलितों की कानूनी लड़ाई लड़ने का जिम्मा सबसे सशक्त रूप में डॉ. अम्बेडकर ने उठाया जो दलित समाज के प्रणेता है। उन्होंने ही सबसे पहले देश में दलितों के लिए सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों की पैरवी की। साफ तौर पर भारतीय समाज के तात्कालिक स्वरूप का विरोध और समाज के सबसे पिछड़े और तिरष्कृत लोगों के अधिकारों की बात की। अतः राजनीतिक व सामाजिक हर स्तर पर इसका विरोध भी स्वाभाविक था। यहाँ तक कि महात्मा गाँधी भी इन माँगों के विरोध में कूद पड़े। बाबा साहब ने माँग की कि दलितों को अलग प्रतिनिधित्व (पृथक निर्वाचिका) मिलना चाहिए।

Also Read:  Introduction to learning and its concept and importance Bachelor of Education (B.Ed) Notes

यह दलित राजनीति में आज तक की सबसे सशस्त व प्रबल मांग थी। उस समय काँग्रेस का राज्य था और वह भी समाज के ताने-बाने में जरा सा भी बदलाव नहीं करना चाहती थी। महात्मा गाँधीजी भी इसके विरोध में अनशन पर बैठ गये। परन्तु बाबा साहब किसी भी कीमत पर इस माँग में पीछे हटना नहीं चाहते थे और जानते थे कि यदि वे इस माँग में पीछे हट गये तो दलितों के लिए उठाई गई इस महत्वपूर्ण माँग को हमेशा के लिए दबा दिया जाये। लेकिन उन पर भी चारों तरफ से दबाव पड़ने लगा और अतः पूना पैक्ट के नाम से एक समझौते में दलितों के अधिकारों की माँग को धर्म की दुहाई देकर समाप्त कर दिया गया। इन सबके बावजूद डॉ. अम्बेडकर ने हार नहीं मानी और समाज के निचले तबकों के लोगों की लड़ाई को जारी रखा।

अम्बेडकर के प्रयासों का ही यह परिणाम है कि दलितों के अधिकारों को भारतीय संविधान में जगह दी गई। यहाँ तक कि संविधान के मौलिक अधिकारों के जरिए भी दलितों के अधिकारों की रक्षा करने की कोशिश की गई।

Leave a comment