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कक्षा-कक्ष शिक्षण के मुख्य मुद्दे | Major Issues in Classroom Learning) B.Ed Notes

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शिक्षा मानव समाज के विकास का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह न केवल ज्ञान का स्रोत है, बल्कि यह एक व्यक्ति के व्यक्तित्व और सभ्यता का निर्माण भी करती है। कक्षा-कक्ष शिक्षण इस प्रक्रिया का महत्वपूर्ण हिस्सा है जिसमें छात्रों को नए ज्ञान का अवसर मिलता है और उनकी क्षमताओं को विकसित किया जाता है।

कक्षा-कक्ष शिक्षण के मुख्य मुद्दे Major Issues in Classroom Learning

मानव एक क्रियाशील प्राणी है। किसी भी क्रियाशील प्राणी को अपने विकास की प्रक्रिया में विभिन्न अवस्थाओं से होकर गुजरना पड़ता है। यह स्वाभाविक स्थिति है। मानव जिन अवस्थाओं से होकर गुजरता है, वो हैं- शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था आदि।

शिक्षण भी एक प्रक्रिया है। अध्यापक पहले पाठ्यवस्तु का चयन करता है उसे प्रस्तुत करने की तैयारी करता है और तत्पश्चात् वह शिक्षण प्रदान करता है। बालक शिक्षण ग्रहण करता है शिक्षण ग्रहण करते समय वह भी कई क्रियाये करता है। शिक्षण प्रदान करने की प्रक्रिया में शिक्षक और छात्र के मध्य क्रियायें होती हैं। निष्क्रिय रूप से शिक्षण नहीं दिया जा सकता है। शिक्षण के समय सदा सक्रियता रहती है। प्रत्येक प्रक्रिया को कई अवस्थाएँ पार करनी होती हैं।

कक्षा-कक्ष शिक्षण के मुख्य मुद्दे | Major Issues in Classroom Learning B.Ed Notes - Sarkari DiARY

शिक्षण भी एक प्रक्रिया है, उसे भी कई अवस्थाओं को पार करना होता है, जैसे- मानव जीवन में एक के बाद दूसरी अवस्था आती है ठीक उसी प्रकार शिक्षण की प्रक्रिया को भी भिन्न-भिन्न अवस्थाओं से गुजरना होता है। जिस प्रकार मानव जीवन की अवस्थायें आपस में घनिष्ठ रूप से जुड़ी होती हैं उसी प्रकार शिक्षण की भी विभिन्न अवस्थायें आपस में जुड़ी हुई होती हैं।

शिक्षण की विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन निम्न प्रकार से किया जा सकता है

  1. पूर्व क्रिया अवस्था (pre-active stage)
  2. अन्तः क्रिया या मध्य क्रिया अवस्था (Interactive stage)
  3. पश्च क्रिया अवस्था (post-active stage)

1. शिक्षण की पूर्व क्रिया अवस्था (Pre-active Stage of Teaching)

इस अवस्था के अन्तर्गत कई उद्दीपनों की मदद से अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन किये जाते हैं। कक्षा में प्रवेश लेने से पूर्व कक्षा में शिक्षण देने से पहले अध्यापक जो भी क्रिया-कलाप करता है उन सबका समावेश शिक्षण की पूर्व क्रिया अवस्था में किया जा सकता है। अध्यापक की इन क्रियाओं का उद्देश्य है-

  1. कक्षा प्रवेश से पहले अपेक्षित लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु तैयारी।
  2. शिक्षण सामग्री के चयन के सम्बन्ध में निर्णय लेना ।
  3. शिक्षण विधि के बारे में निर्णय लेना।

इस अवस्था को शिक्षण की तैयारी अवस्था (Preparation stage of teaching) या शिक्षण की नियोजन अवस्था (Planning stage of teaching) भी कहा जाता है –

इस अवस्था में अधोलिखित प्रक्रियाओं का समावेश किया जाता है

शिक्षा में तकनीकी प्रगति का समावेश

वर्तमान में, तकनीकी प्रगति ने शिक्षा के क्षेत्र में भी अपनी पहुंच बढ़ाई है। कक्षा-कक्ष शिक्षण में तकनीकी साधनों का उपयोग करने के लिए अब अनेक संभावनाएं हैं। छात्रों को इंटरैक्टिव और रुचिकर पाठ्यक्रम प्रदान करने के लिए इंटरनेट, कंप्यूटर, मल्टीमीडिया उपकरण, वीडियो लेक्चर, और अन्य तकनीकी साधनों का उपयोग किया जा सकता है। इससे छात्रों की रुचि और ग्रहणशक्ति बढ़ती है और उन्हें स्वतंत्र रूप से अध्ययन करने की क्षमता मिलती है।

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अनुदेशन उद्देश्यों का निर्धारण (Setting of Instructional Goals)-

शिक्षण की प्रक्रिया करने से पहले यह आवश्यक है कि उसके उद्देश्यों का निर्धारण कर लिया जाए। इससे पता लग जाता है कि शिक्षण के माध्यम से किन-किन व्यवहार परिवर्तनों को किया जा सकता है। जब तक अनुदेशन के उद्देश्यों को निर्धारित नहीं कर लिया जाता, तब तक शिक्षण की प्रक्रिया में सफलता की आशा कैसे की जा सकती है।

शिक्षण के उपरान्त हमें व्यवहार परिवर्तन की दृष्टि से नीचे लिखे लक्ष्य निर्धारित करने चाहिए-

  • विद्यार्थियों के पूर्व व्यवहार से सम्बन्धित।
  • विद्यार्थियों के अन्तिम व्यवहार से सम्बन्धित।

छात्रों के पूर्व व्यवहार सम्बन्धी उद्देश्य इसलिए निर्धारित करने चाहिए ताकि यह पता चल सके कि शिक्षण से पहले हमें किन-किन उद्देश्यों की आवश्यकता है और शिक्षण प्रदान करते समय किन पूर्व व्यवहारों की जरूरत होगी।

विद्यार्थियों के अन्तिम व्यवहार सम्बन्धी उद्देश्य इसलिए निर्धारित करने चाहिए ताकि यह पता चल सके कि शिक्षण के उपरान्त किन-किन उद्देश्यों की पूर्ति होनी चाहिए।

शिक्षण सामग्री के चयन के सम्बन्ध में निर्णय लेना (To decide about the selection of teaching materials)-

जब अध्यापक यह निर्धारित कर लेता है कि अनुदेशन के उद्देश्य क्या हैं और उनको अपेक्षित व्यवहारों के रूप में स्पष्ट कर लेता है तो वह उस शिक्षण सामग्री की ओर ध्यान देता है। तव जिनसे वांछित उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके। शिक्षण सामग्री के चयन के समय वह विचार करता है कि-

  • सामग्री का स्वरूप क्या हो ?
  • सामग्री का स्तर क्या हो ?
  • सामग्री का आकार क्या हो ?

शिक्षण विधि के बारे में निर्णय लेना (To decide about the teaching method) –

अनुदेशन के उद्देश्य निर्धारित हो गए और अध्यापक ने इन उद्देश्यों की पूर्ति हेतु तथा छात्रों की आवश्यकताओं हेतु शिक्षण सामग्री का चयन भी कर लिया, अब शिक्षक यह निर्धारित करता है कि छात्रों को किस विधि से पढ़ाया जाए ताकि उपर्युक्त उद्देश्यों की पूर्ति हो सके।

व्यूह रचना का निर्धारण (Deciding Strategies of Teaching) –

व्यूह रचना की दृष्टि से अध्यापक कक्षा विशेष के पाठ्यक्रम का अवलोकन करता है फिर इसके आधार पर पाठ्य वस्तु की इकाइयाँ निर्धारित करता है तत्पश्चात पाठ्यवस्तु की इकाईयों के आधार निर्धारित करता है-

  • इस पाठ्य-वस्तु को कक्षा के सामने कैसे प्रस्तुत किया जाए ? उसका क्रम क्या हो ?
  • इस पाठ्य वस्तु को किस विधि से पढ़ाया जाए ?
  • पाठ के विकास में कौन-सी सहायक सामग्री उपयुक्त हो सकती है ?
  • उपर्युक्त तीनों बातों के आधार पर बालकों को कैसे सक्रिय और गतिशील रखा जा सकता

ऊपर जिन बातो का उल्लेख किया गया है उनका निदानात्मक (Diagnostic) महत्व भी है के इसलिए पूर्व क्रिया अवस्था को शिक्षण की निदानात्मक अवस्था (Diagnostic Stage of Teaching) नाम भी दिया गया है।

2. शिक्षण की अन्तः क्रिया या मध्य क्रिया अवस्था (Interactive Stage of Teaching)

शिक्षण की इस अवस्था में वे सभी पदार्थ आ जाते हैं, वे सभी व्यवहार आ जाते है, वे सभी क्रिया आ जाती हैं जिनका प्रयोग अध्यापक पाठ्य-वस्तु के प्रस्तुतीकरण के समय कक्षा में करता है। यही अवस्था है जिसके अन्तर्गत अध्यापक और विद्यार्थी के बीच अन्त क्रिया होती है।

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अध्यापक ने पूर्व क्रिया अवस्था में जो योजना बनाई है वह उसे इस अवस्था में ही क्रियान्वित करता है। यह व्यवस्था बालक के व्यवहार को रूपान्तरित करने की अवस्था है। इस अवस्था में अध्यापक का बड़ा भारी उत्तरदायित्व होता है। बालकों के पूर्व व्यवहारों को देखते हुए वह उनसे अपेक्षित परिवर्तन करने के लिए गतिशील होता है।

इस अवस्था में अध्यापक यह कार्य करता है-

कक्षा की प्रकृति को समझना (Feeling of the Nature of Class) – अध्यापक कक्षा में प्रवेश करता है और निरीक्षण करता है कि कक्षा बड़ी है या छोटी। वह छात्रों पर एक दृष्टि डालता है और विद्यार्थियों के व्यवहार और व्यक्तित्व के सम्बन्ध में पूर्वानुमान लगा लेता है। वह उसकी चित्तवृत्ति की एक झलक पा जाता है कि कौन सा व्यक्ति शिक्षण में रुचि लेगा, कौन समस्या बनेगा, कौन ध्यान देगा और कौन-सा ध्यान नहीं देगा।

विद्यार्थी की आवश्यकताओं को जानना और उसका निदान (Diagnosy of the Learners needs and their solution ) – अध्यापक कक्षा में प्रश्नोत्तर द्वारा अथवा उनकी प्रतिक्रियाओं का निरीक्षण करके यह जानने का प्रयास करता है कि विद्यार्थियों की सीखने की दृष्टि से क्या-क्या आवश्यकताएँ हैं।

अध्यापक शिक्षण प्रक्रिया के अन्तर्गत विद्यार्थी के निम्न पक्षों के निदान की चेष्टा करता है-

  • विद्यार्थियों की अभिरुचियाँ क्या हैं ?
  • शिक्षार्थियों का मानसिक स्तर या मानसिक योग्यता क्या है ?
  • उसके ज्ञान का स्तर क्या है अर्थात् उसका पूर्व ज्ञान क्या है ?
  • छात्रों की अभिवृत्तियों क्या हैं? क्या वे शिक्षण के प्रति उन्मुख हैं ?

विद्यार्थियों को शिक्षण देने की प्रक्रिया, कक्षा में क्रिया प्रतिक्रिया (Process of Teaching of Students, Actions and Reactions in Classroom) – विवरण द्वारा, विवेचन द्वारा प्रश्नों द्वारा शिक्षार्थियों को उत्तेजक प्रदान किये जाते हैं। ये शाब्दिक अथवा अशाब्दिक दोनों प्रकार के हो सकते हैं. यथा-रेखाचित्र, चित्र, आरेख (डायग्राम) हाव-भाव आदि ।

अध्यापक इस बात का ध्यान रखें कि पाठ्य-वस्तु की प्रकृति और विद्यार्थी के स्तर के अनुसार ही उत्तेजकों का चयन किया जाना चाहिए।

शिक्षण के समय जो क्रियायें होती हैं, उनके दो रूप हैं-

  • क्रियायें (Actions or Activities)
  • प्रतिक्रियायें (Reactions or Responses)

ये क्रियाएँ और प्रतिक्रियाएँ अध्यापक और विद्यार्थी के बीच होती है। जब अध्यापक क्रियाएँ करता है तो छात्र प्रतिक्रियाएं करते हैं। इसी प्रकार जब कोई छात्र क्रिया करता है तो अध्यापक प्रतिक्रिया करता । दोनों प्रकार की इन क्रियाओं को शाब्दिक अन्तक्रिया कहा जाता है। है।

एक अच्छा अध्यापक जानता है कि शिक्षण की अमुक परिस्थिति में अमुक प्रेरक अधिक उपयोगी तथा अधिक प्रभावशाली होगा। प्रस्तुतीकरण के समय कौन-सा प्रेरक सीखने की दृष्टि से छात्रों को अधिक प्रेरित कर सकता हैं एक अध्यापक इसका पुष्टीकरण इस प्रकार कर सकता है-

  • अभ्यास या पुनरावृत्ति कराकर,
  • पुरस्कार या शाबाशी देकर।

पुष्टीकरण या पुनर्बलन के इस कार्य शिक्षण को उपचारात्मक पक्ष कहा जा सकता है। इसलिए कार्य को ध्यान में रखते हुए इस अवस्था को शिक्षण की उपचारात्मक अवस्था (Remedial Stage of Teaching) भी कह सकते हैं।

शिक्षण की पश्च क्रिया अवस्था (Post Active Stage of Teaching ) –

यह अवस्था मूल्यांकन की है, इसमें

  • शिक्षण के दौरान किये गए कार्य का मूल्यांकन किया जाता है।
  • शिक्षण के समय अर्जित या प्राप्त ज्ञान का मूल्यांकन किया जाता है।

मूल्यांकन के लिए औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों विधियों का ही सहारा लिया जाता है। मूल्यांकन इस बात को ज्ञात किया जाता है कि विद्यार्थियों का अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन कहाँ तक हुआ है ?

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इस अवस्था में जो कार्य किये जाते हैं, वे इस प्रकार हैं-

व्यवहार परिवर्तन की जाँच (Examining of Behavioural Changes )- शिक्षण द्वारा छात्र के व्यवहार परिवर्तन की जाँच में यह देखा जाता है कि-

  • छात्र में व्यवहार परिवर्तन किस सीमा तक हुआ है ?
  • यह व्यवहार परिवर्तन अपेक्षित अथवा वांछित व्यवहार परिवर्तन की तुलना में कितना हुआ है ?

यह मूल्यांकन दो बातों का होता है-

  • छात्रों के व्यवहार परिवर्तन का मूल्यांकन,
  • अध्यापक के शिक्षण का मूल्यांकन

मूल्यांकन की दृष्टि से उपयुक्त प्रविधियों का चयन (Evaluation of Selected Appropriate Techniques) – छात्रों में व्यवहार परिवर्तन का मूल्यांकन अध्यापक को करना होता है। इस कार्य के लिए यह उपयुक्त मूल्यांकन विधि का चयन करता है। चयनित विधि में निम्न गुण होने चाहिए-

  • विश्वसनीयता
  • वैधता
  • प्रामाणिकता।

ऐसा न होने पर मूल्यांकन का कोई लाभ नहीं होगा और सारा किया-कराया परिश्रम व्यर्थ होगा।

कमियों को दूर करना (Modifying Defects)- मूल्यांकन के द्वारा जिन कमियों का निदान किया गया है उन्हें दूर करने के लिए निम्न क्रियायें की जाती हैं-

  • शिक्षण नीतियों में परिवर्तन,
  • शिक्षण प्रविधियों में फेर बदल,
  • यदि अन्तिम उद्देश्य की प्राप्ति नहीं अथवा आंशिक हुई है तो उसके कारणों की ओर विशेष ध्यान देना।
    शिक्षण प्रविधियों, शिक्षण सामग्री, प्रवेश व्यवहार सबकी जाँच। अन्त में सब पक्षों को सुधार करने के सुझाव दिये जाते हैं।

अवसरों का समान वितरण

कक्षा-कक्ष शिक्षण के एक मुख्य मुद्दे में से एक है अवसरों का समान वितरण। हमारे समाज में, अधिकांश बच्चे ग्रामीण क्षेत्रों या असुरक्षित शहरी क्षेत्रों से होते हैं, जहां उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा के लिए उपयुक्त संसाधन नहीं होते हैं। कक्षा-कक्ष शिक्षण के माध्यम से, हर छात्र को समान अवसर मिलते हैं जो उन्हें अपनी क्षमताओं को विकसित करने के लिए आवश्यक ज्ञान और संसाधनों की पहुंच प्रदान करते हैं।

इसके अलावा, कक्षा-कक्ष शिक्षण छात्रों को स्वतंत्रता भी प्रदान करता है। छात्रों को अपने अध्ययन के अनुसार अपनी मनपसंद गतिविधियों का चयन करने की अनुमति होती है, जिससे उनका रुचि और उत्साह बढ़ता है। इससे उनका स्वयं निर्धारित अध्ययन समय और उनकी अध्ययन क्षमता में सुधार होता है।

विभिन्न शैक्षणिक आवश्यकताओं का समाधान

कक्षा-कक्ष शिक्षण एक और महत्वपूर्ण मुद्दा है विभिन्न शैक्षणिक आवश्यकताओं का समाधान करने का। हर छात्र की शिक्षा और समझ की स्तर अलग होती है और वे अलग-अलग तरीकों से सीखते हैं। कक्षा-कक्ष शिक्षण के माध्यम से, शिक्षकों को छात्रों की आवश्यकताओं को समझने और उन्हें उनके शिक्षा के मानदंडों के अनुसार निर्धारित करने का मौका मिलता है। इससे हर छात्र को उच्चतम स्तर की शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिलता है, जो उनके भविष्य के लिए महत्वपूर्ण होता है।

यहां तक ​​कि कक्षा-कक्ष शिक्षण शिक्षार्थियों को सक्षम बनाने के लिए सामाजिक और नैतिक मूल्यों को विकसित करने में भी मदद करता है। शिक्षा के माध्यम से, छात्रों को समाज के नियमों और मान्यताओं के बारे में ज्ञान प्राप्त होता है और उन्हें सही और गलत के बीच अंतर का अनुभव होता है। इससे उनकी सामाजिक और नैतिक संज्ञाना विकसित होती है जो उनके व्यक्तित्व के निर्माण में मदद करती है।

सारांश करते हुए, कक्षा-कक्ष शिक्षण शिक्षा के मुख्य मुद्दों में से एक है। इसके माध्यम से, छात्रों को नए ज्ञान का अवसर मिलता है, उनकी क्षमताओं को विकसित किया जाता है, अवसरों का समान वितरण होता है, विभिन्न शैक्षणिक आवश्यकताओं का समाधान होता है, और सामाजिक और नैतिक मूल्यों का विकास होता है। कक्षा-कक्ष शिक्षण शिक्षा के लिए एक आवश्यक और महत्वपूर्ण माध्यम है जो छात्रों को उच्चतम स्तर की शिक्षा प्राप्त करने में मदद करता है।

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