शिक्षण की उपर्युक्त तीनों अवस्थाओं की अपनी विशिष्ट क्रियाएँ हैं जिनके माध्यम से शिक्षक अपना शिक्षण कार्य पूरा करता है। इनका विवरण इस प्रकार दिया जा सकता है-
(a) पूर्व-अवस्था में शिक्षण क्रियाएँ (Teaching Operations in Pre-active Stage)
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(b) अन्त प्रक्रिया अवस्था में शिक्षण क्रियाएँ (Operations of Teaching during Interactive Stage)
शिक्षण की अन्त प्रक्रिया में शिक्षक द्वारा कक्षा के अन्दर किये जाने वाली समस्त क्रियाएँ आती है, जिनमें से प्रमुख हैं-
(1) कक्षा-आकार की अनुभूति (Sizing up the Class) –
शिक्षक कक्षा में प्रवेश करते ही एक संवेदनशीलता के साथ छात्रों की ओर ध्यान देते हैं। उनकी निगाह से वह कक्षा के विभिन्न हिस्सों को देखते हैं और अनुभव से समझते हैं कि कौन-कौन से छात्र उनकी मदद और संदेश को समझ रहे हैं और कौन-कौन से उनके ध्यान को आकर्षित करने में कठिनाई हो सकती है। इस अनुभव के आधार पर, वे अपने पाठ्यक्रम को आधारित करते हैं और छात्रों के साथ विभिन्न प्रकार की शिक्षा व्यवस्था स्थापित करते हैं।
उसी समय, छात्र भी शिक्षक की ओर ध्यान देते हैं। वे शिक्षक की क्षमता और व्यक्तित्व का मूल्यांकन करने का प्रयास करते हैं। वे देखते हैं कि शिक्षक की व्यावहारिकता, उनके भाषा-शैली, और व्यक्तित्व की विशेषताओं से कैसे प्रभावित होते हैं। छात्रों के लिए, एक प्रभावशाली शिक्षक उन्हें प्रेरित करने में मदद कर सकता है और उनकी शिक्षा में सकारात्मक परिणाम प्राप्त करने में सहायक हो सकता है।
(2) छात्रों का निदान (Diagnosis of Learner)-
(3) क्रिया अथवा उपलब्धि या निष्पत्ति कार्य (Achievement or Action Operations) –
शिक्षण में संबंध एक लक्ष्य और लक्ष्य या उपलब्धि से है जो शिक्षक और छात्र मध्य विद्यालय में स्थापित होते हैं। इन अभ्यासों को शाब्दिक अंतःक्रिया (मौखिक अंतःक्रिया) या अशाब्दिक अंतःक्रिया (गैर-मौखिक) में बाँटते हैं। इनमें उद्दीपकों का चुनाव, उनकी प्रस्तुति, पृष्ठ-पेशेवर तथा पुनर्बलन तथा शिक्षण युक्तियाँ या शिक्षाओं का प्रयोग अधिक महत्वपूर्ण क्रियाएँ हैं।
1. उद्दीपकों का चुनाव (Selection of Stimuli)–
शिक्षण उत्तेजना और प्रतिक्रिया (एस-आर) पर आधारित है। इसमें शिक्षक छात्रों को मौखिक और गैर-मौखिक उत्तेजनाएँ प्रस्तुत करता है। शिक्षण प्रक्रिया की सफलता इन प्रोत्साहनों के चयन पर निर्भर करती है। इसलिए शिक्षक को ऐसी उत्तेजनाओं का उपयोग करना चाहिए जो कक्षा में अधिक प्रभावी साबित हों। उत्तेजनाओं के चयन के क्षेत्र में शिक्षक को इस बात की पूरी जानकारी होनी चाहिए कि कौन सी उत्तेजना किस परिस्थिति में बेहतर परिणाम देती है। इस प्रकार वांछित गतिविधियाँ एवं परिस्थितियाँ निर्मित कर शिक्षण कार्य सुचारू रूप से आगे बढ़ना चाहिए।
2. उद्दीपकों का प्रस्तुतीकरण (Presentation of Stimuli) –
प्रोत्साहन का चयन करने के बाद शिक्षक को प्रोत्साहन प्रस्तुत करते समय बहुत सावधानी बरतनी चाहिए। सबसे पहले, उसे प्रोत्साहन के बारे में ज्ञान होना चाहिए और उसे कक्षा में कैसे प्रस्तुत करना चाहिए। यदि प्रोत्साहन गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया है, तो प्रतिक्रियाएँ भी गलत होंगी। अतः उत्तेजनाओं को प्रस्तुत करते समय उनके स्वरूप, सन्दर्भ और क्रम को भी ध्यान में रखना चाहिए।
3. पृष्ठ-पोषण तथा पुनर्बलन (Feedback and Reinforcement)-
पृष्ठभूमि पोषण और सुदृढीकरण से हमारा तात्पर्य उन परिस्थितियों से है जो किसी विशेष प्रतिक्रिया की संभावना को बढ़ाती हैं। इनके माध्यम से वांछित व्यवहार या प्रतिक्रिया को स्थायी बनाया जाता है। ये स्थितियाँ दो प्रकार की होती हैं-
(1) धनात्मक तथा (2) ॠणात्मक।
धनात्मक (Positive) पुनर्बलन में, वाछित व्यवहार के बार-बार होने की सम्भावना में वृद्धि होती है। जैसे प्रशंसा, पुरस्कार, नया ज्ञान मिलना, प्रमाण-पत्र आदि
ऋणात्मक पुनर्बलन (Negative Reinforcement) – अवांछित व्यवहार को रोकने के लिए उपयोग किया जाता है। जैसे सज़ा, डांट।
पृष्ठ-पोषण तथा पुनर्बलन अनुक्रिया या व्यवहार को शक्ति प्रदान करते हैं, व्यवहार में वांछित परिवर्तन करते हैं और व्यवहार को सही या संशोधित भी करते हैं। अतः शिक्षण में इनका प्रयोग छात्रों के व्यवहार में अभीष्ट परिवर्तन लाने के लिए किया जाता है।
4. शिक्षण युक्तियों का विस्तार (Development of Teaching Strategies) –
शिक्षक कक्षा में छात्रों को नया ज्ञान देने के लिए विभिन्न प्रकार की शिक्षण रणनीतियों का उपयोग करता है, ताकि उसकी शिक्षण गतिविधियाँ अधिक उपयोगी हो सकें। शिक्षण रणनीतियों का विस्तार करते समय, शिक्षक को केवल विषय वस्तु की प्रस्तुति, सीखने के प्रकार और छात्रों की पृष्ठभूमि (पूर्व ज्ञान, आयु, कक्षा आदि), उनकी ज़रूरतें, प्रेरणाएँ, दृष्टिकोण आदि को ध्यान में रखना चाहिए। तभी वह सही रणनीतियों का चयन करने में सक्षम होगा।
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(c) उत्तर-क्रिया अवस्था में कार्य क्रियाएँ (Operations of the Post-active Stage of Teaching)
यह अवस्था शिक्षण के मूल्यांकन से सम्बन्धित है। शिक्षक ने जो कुछ भी सिखाया है उसका मूल्यांकन करके यह मालूम किया जाता है कि छात्रों ने उसे किस सीमा तक सीखा है। इस अवस्था में निम्नांकित क्रियाएँ अधिक महत्त्वपूर्ण है-
(i) शिक्षण द्वारा व्यवहार परिवर्तन के वास्तविक रूप की परिभाषा (Designing the Exact Dimensions of Behavioral Change)-
शिक्षण समाप्त होने के बाद शिक्षक शिक्षण के माध्यम से व्यवहार परिवर्तन के वास्तविक स्वरूप को परिभाषित करता है, जिसे मानदंड व्यवहार कहा जाता है। इसके लिए वह विद्यार्थियों में होने वाले वास्तविक परिवर्तनों की तुलना अपेक्षित व्यवहारगत परिवर्तनों से करते हैं। यदि अधिकांश विद्यार्थियों में वांछित परिवर्तन आ गया है तो इसका अर्थ है कि वह सफल हुआ और उद्देश्य प्राप्त हो गये। यदि इसके विपरीत परिणाम प्राप्त होते हैं तो यह शिक्षण की विफलता को दर्शाता है।
(ii) मूल्यांकन की उपयुक्त प्रविधियों का चयन (Selecting Appropriate Devices an Techniques of Evaluation)-
शिक्षक छात्रों के व्यवहारिक परिवर्तनों का मूल्यांकन करने के लिए विश्वसनीय, उद्देश्यपूर्ण और वैध तरीकों का चयन करता है। मूल्यांकन के समय ऐसी तकनीकों का चयन करना चाहिए जो संज्ञानात्मक, भावात्मक और मनोप्रेरणा पहलुओं का सही मूल्यांकन कर सकें। आजकल क्राइटेरियन टेस्ट पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है।
(iii) प्राप्त परिणामों से शिक्षण नीतियों में परिवर्तन (Changing the Strategies in Terms of Evidence Gathered)-
मूल्यांकन के माध्यम से शिक्षक को अपने शिक्षण की कमियों एवं सीमाओं का पता चलता है। इसलिए, एक अच्छा शिक्षक मूल्यांकन से जानकारी प्राप्त करके और अपनी शिक्षण नीतियों, रणनीतियों और तकनीकों आदि में सुधार करके शिक्षण को अधिक प्रभावी बनाना शुरू कर देता है।
उपर्युक्त सभी गतिविधियाँ एवं चरण एक-दूसरे से संबंधित हैं। एक अच्छा शिक्षक इन तीन चरणों में गतिविधियों को व्यवस्थित और समायोजित करके अपने शिक्षण को प्रभावी बनाने का प्रयास करता है।
शिक्षण क्रियाओं का महत्व (Importance of Teaching Operations)
शिक्षण प्रक्रिया विभिन्न शिक्षण क्रियाओं का समग्र रूप है। अतः शिक्षण क्रियाएँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण
विषय-वस्तु है। शिक्षण की सफलता इन क्रियाओं के सफल संचालन पर निर्भर करती है। आगे कुछ बिन्दु दिये जा रहे हैं जो शिक्षण की क्रियाओं का महत्व प्रदर्शित करते हैं-
1. शिक्षकों को दिशा निर्देश मिलता है कि उन्हें कक्षा में प्रवेश करने से पूर्व, कक्षा के समय तथा कक्षा के बाद क्या करना चाहिये।
2. शिक्षण क्रियाएँ, शिक्षण चरों के स्वरूप को समझने में सहायता देती हैं।
3. इनको सुव्यवस्थित कर शिक्षण प्रक्रिया की प्रभावशीलता बढ़ायी जा सकती है।
4. सीखने और सिखाने की प्रक्रिया में घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करती है।
5. ये क्रियाएँ सूक्ष्म उपागमों के प्रयोग को बढ़ावा देती हैं।
6. शिक्षण के स्मृति से लेकर चिन्तन स्तर तक के शिक्षण को (इन क्रियाओं को ध्यान में रखते हुए) प्रभावपूर्ण बना सकते हैं।
7. इन क्रियाओं के ज्ञान से छात्राध्यापको को शिक्षण के विभिन्न पदों से परिचित कराया जा सकता
8. सेवारत (Inservice) शिक्षक भी इन क्रियाओं का ज्ञान प्राप्त कर शिक्षण कौशल का विकास करते हैं।
9. शिक्षण की क्रियाएँ, अनुदेशन प्रारूप तैयार करने के लिए वैज्ञानिक आधार प्रदान करती है।
10. शिक्षण के मूल्यांकन के लिए उचित विधियों के विषय में निर्देशन देती है।
11. छात्रों और शिक्षकों को ये क्रियाएँ वास्तविक धरातल पर लाकर शिक्षण व्यवस्था सुधार के लिए प्रयत्नशील रहती है।
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