जैसा कि आप सब जानते है कि भाषा का क्षेत्र अत्यधिक वृहद है। इसका क्षेत्र विस्तार व्यक्ति के समस्त कार्य-व्यापार और विषयों तक है। यही कारण है की भाषा के विषय में विज्ञान, मानविकी, सामाजिक विषयों, तकनीकी विषयों आदि सभी क्षेत्रों में किसी न किसी रूप में अध्ययन किया जाता है। प्रसिद्ध समाज-भाषाशास्त्री (Socio-Linguist) हैलीडे महोदय ने भाषा की तीन परिप्रेक्ष्य बताएं हैं।
- भाषा सीखना (एक विषय के रूप में): हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, तमिल आदि भाषाओं का अध्ययन करना।
- भाषा द्वारा सीखना (माध्यम के रूप में): हिंदी माध्यम से विज्ञान, गणित, इतिहास विषयों का अध्ययन करना।
- तृतीय भाषा के विषय में सीखना (किसी भाषा के विषय में भाषाशास्त्रीय विवेचना): अंग्रेजी भाषा की प्रकृति, ध्वनिशास्त्र, शब्दशास्त्र, सरंचना आदि की विवेचनात्मक और विश्लेषणात्मक अध्ययन करना।
यहां हम द्वितीय संदर्भ ‘भाषा शिक्षा के माध्यम के रूप में’ का अध्ययन करेंगे। जब हम भाषा एक माध्यम की चर्चा करते हैं तो इसका सीधा संबंध उस भाषा से होता है जो विद्यालय में पाठ्यचर्या के निष्पादन हेतु प्रयोग की जाती है। भाषा का यह कार्य अपने आप में गहन निहितार्थ रखता हैं। भाषा का सम्प्रेषण के माध्यम के रूप में कार्य करना एक ऐसी विशेषता है जो हमें मानव सभ्यता की जड़ की ओर सोचने के लिए बाध्य करती है। हमें लगता है कि भाषा में व्यक्ति के विचार, सूचना, ज्ञान आदि को दूसरे व्यक्ति तक पहुँचाने की क्षमता ने ही समाज की पृष्ठभूमि रखी होगी। क्योंकि कोई भी समाज स्थायी नियमों और परंपराओं से संगठित होता है, जो कि एक स्पष्ट सम्प्रेषण के माध्यम के अभाव में सम्भव नही हो सकता है। विद्यालय की संकल्पना भी यहीं से उद्भूत होती हुई प्रतीत होती है। जब एक पीढ़ी अपनी संचित ज्ञान व उपलब्धियां दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित करने का प्रयास करती है और भाषा जैसे उपकरण के द्वारा हस्तांतरित करने में सक्षम भी होती है, तब विद्यालय जैसी संस्था का उदय होता है।
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प्रसिद्ध रूसी मनोवैज्ञानिक वायगोत्स्की (Vygotsky, 1962) ने भी इसी संदर्भ में भाषा के दो कार्य बताये हैं। प्रथम भाषा एक मनोवैज्ञानिक उपकरण है जो हमारी चिंतन और तर्क की प्रक्रिया में सहायता करती है और दूसरा भाषा एक सांस्कृतिक उपकरण के रूप में कार्य करती है। वायगोत्स्की के दोनो ही संदर्भ भाषा को शिक्षण की प्रक्रिया से जोड़ते हैं। प्रथम ज्ञान रचना प्रक्रिया (चिंतन) और दूसरा संरचित ज्ञान (संस्कृति) की ओर इसारा करता है। उन्होंने सामूहिक ज्ञान को ही संस्कृति कहा है। अतः सामूहिक ज्ञान या संस्कृति के आदान-प्रदान-प्रसार हेतु भाषा एक प्रमुख माध्यम है। इस सांस्कृतिक प्रसार की प्रक्रिया के लिए जो एक स्थान निश्चित हो जाता है उसे हम विद्यालय कहते है। जब इन्ही संस्कृतिक उपलब्धियों को लिखित भाषा के माध्यम से स्थायित्व और वैद्यता प्रदान करके एक संरचित रूप प्रदान कर दिया जाता है तब हम इसे पाठ्यचर्या कह सकते हैं और इस पाठ्यचर्या के निष्पादन को शिक्षण कहा जाता है जो किसी न किसी भाषा के माध्यम से ही संभव है। यहाँ हम देख सकते है की शिक्षण ही नही अपितु सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था के उद्भव और संचालन में भाषा की मुख्य भूमिका है।
जब हम भाषा एक शिक्षण माध्यम की बात करते है तब किसी एक भाषा विशेष की बात नहीं कह सकते है। शिक्षण का माध्यम एकभाषी, द्विभाषी और बहुभाषी भी हो सकता है। यह कोई मानकीकृत भाषा जैसे कि हिंदी अंग्रेजी आदि हो सकती है और कोई उप-भाषा या बोली भी हो सकती है जैसे कि गढ़वाली, कुमाऊनी आदि।
प्रायः सभी विद्यालयों में शिक्षण के एक प्रमुख भाषा होती है जो कि एक विद्यालय प्रबंध समिति या सरकार द्वारा निर्धारित की जाती है। शासकीय प्रावधानों के अलावा शिक्षक और बच्चों की भाषा भी शिक्षण अधिगम के निर्धारण का कार्य करती है। उदाहरण के लिए सरकार ने हिंदी भाषा को शिक्षण माध्यम के रूप में स्वीकार किया है और शिक्षक व छात्र कुछ विद्यालयों में गढ़वाली य कुमाऊनी उपभाषाओं में संवाद करतें है। इस उदाहरण को नकारात्मक रूप से नही लेना चाहिए। शिक्षण अधिगम की सुगमता हेतु शिक्षण के माध्यम में परिवर्तन किया जा सकता है। इसका कारण आप जानते ही है कि शिक्षण का लक्ष्य बच्चों के व्यवहार परिवर्तन (अधिगम) करना और उनमें सूझ विकसित करना होता है। साथ ही आप यह भी जानते ही है कि कोई भी व्यक्ति अपनी प्रथम भाषा में शीघ्रता से समझता है। अतएव प्रभावशाली और भाषा प्रवीण शिक्षक किसी एक भाषा पर आश्रित नहीं रहता हैं। आज का समय बहुआयामी, बहुभाषायी व बहुतकनीकी सुलभ है। हमें भाषा एक विषय से अलग भाषा एक माध्यम के संप्रत्यय को भी अच्छे से समझना होगा। हम जान रहे हैं कि भाषा सभी विषयों की आधारशिला है और कहीं ना कहीं किसी न किसी प्रत्येक विषय का शिक्षण भाषा शिक्षण ही होता है। अतः भाषा एक माध्यम के रूप में प्रत्येक विषय के ज्ञान में केंद्रीय भूमिका अदा करती है। बच्चे जिस भाषा को समझते हो, समझने के साथ उस में चिंतन करने की क्षमता रखते हो, वही भाषा एक उचित शिक्षण माध्यम हो सकती है।
शिक्षण का माध्यम होना भाषा के बहुआयामी कार्यों का एक पक्ष मात्र है। भाषा सिर्फ संप्रेषण का माध्यम नहीं है लेकिन संप्रेषण भाषा का एक प्रमुख कार्य है। हम स्पष्ट, प्रत्यक्ष व मूर्त कार्य कह सकते हैं। इसके अलावा भाषा का चिंतन प्रक्रिया का हिस्सा होना, संस्कृति का हिस्सा होना, समाजीकरण की प्रक्रिया का माध्यम होना आदि सभी अमूर्त व अप्रत्यक्ष कार्य कहे जा सकते हैं। आप जब अपनी कक्षा (Classroom) में बच्चों के सामने हो तब बच्चों से एक प्रश्न कर सकते है कि आप कहाँ है? उत्तर होगा कि कक्षा में क्लास में। तब आप बच्चों से पूछिए कि क्लास कहाँ है? यहाँ उपस्थिति और दृष्टिगोचर वस्तुओं में आप किसे कक्षा कहते है? अनेक उत्तर बच्चों की तरफ से आपको प्राप्त हो सकते है। जैसे कोई कमरे को कक्षा कहेगा, कमरे में मेज, कुर्सी, श्यामपट आदि की उपस्थिति को कक्षा कहेगा। लेकिन यह सब वस्तुएं किसी अन्य कक्ष में भी हो सकती है जो किसी वार्ता या किसी सम्मेलन या परिचर्चा के लिए प्रयोग किया जाता हो। कक्षा-कक्ष (Classroom) के संप्रत्यय को निर्धारित करने वाला कारक शिक्षक और विद्यार्थियों के बीच में अंतर्क्रिया और संवाद होता है। इस संवाद का आधार भाषा ही होती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं भाषा सिर्फ शिक्षण का माध्यम नहीं है बल्कि शिक्षण का पर्याय व सारतत्व है जो कक्षा-कक्ष के संप्रत्य को सही रुप से परिभाषित करती है। भाषा के बिना शिक्षण की प्रक्रिया की कल्पना नहीं की जा सकती है। आप जरा सोचिए कि आप एक शिक्षक हैं और आप भाषा का प्रयोग किए बिना शिक्षण कार्य कर रहे हैं, शायद कल्पनातीत होगा। अंत में यही कह सकते है कि शिक्षक द्वारा भाषा का प्रयोग ही शिक्षण है।