History of Jharkhand – Major rebellions and movements of Jharkhand (झारखंड के प्रमुख विद्रोह एवं आंदोलन)
झारखंड के प्रमुख विद्रोह एवं आंदोलन
- जब कंपनी ने सन् 1767 में इस क्षेत्र में पदार्पण किया, तभी यहाँ असंतोष व्याप्त हो गया था। जनजातीय जीवन वैसे भी कठिन था ऊपर से प्राकृतिक आपदाओं तथा अकाल ने इनके सामने बड़े भीषण संकट पैदा कर दिए। आर्थिक कठिनाइयों और अन्न के अभाव ने इन जनजातियों को तोड़कर रख दिया। उस पर भी मुगलों, मराठों एवं स्थानीय जमीदारों ने इनका दमन व शोषण करके इन्हें विद्रोही बना दिया।
- अंग्रेजों के आने से जनजातीय लोगों को अपनी पहचान व स्वतंत्रता खतरे में पड़ती दिखाई देने लगी थी। 17वीं शताब्दी के अंत में जनजातीय विद्रोह शुरू हो गए थे। अंग्रेजी शासन में कुल 13 जनजातीय विद्रोह हुए, जिनमें से मुख्य विद्रोहों का वर्णन इस प्रकार है
तमाड़ विद्रोह
- सन् 1771 में अंग्रेजों ने छोटानागपुर पर अपना अधिकार जमा लिया था और यहाँ के राजाओं एवं जमींदारों को कंपनी का संरक्षण मिल चुका था।
- जमींदारों ने किसानों की जमीनें हड़पनी शुरू कर दी थीं। इस शोषण नीति ने उराँव जनजाति के लोगों में विद्रोह की आग भड़का दी।
- इस जनजाति ने सन् 1789 में अपने विद्रोही तेवर दिखाने शुरू कर दिए और जमींदारों पर टूट पड़े।
- सन् 1794 तक इन विद्रोहियों ने जमींदारों को इतना भयभीत कर दिया कि उन्होंने अंग्रेज सरकार से अपनी रक्षा करने की गुहार लगाई। अंग्रेजों ने परिस्थिति को भाँपा और पूरी शक्ति से विद्रोह को कुचल दिया।
तिलका आन्दोलन(1783-1785)
- तिलका आन्दोलन की शुरुआत 1783 ई. में तिलका मांझी और उनके समर्थको द्वारा की गयी थी। इस आंदोलन का प्रमुख केन्द्र वनचरीजोर था, जो वर्तमान में भागलपुर के नाम से जाना जाता है।
- तिलका मांझी का दूसरा नाम जबरा पहाड़ीया था।
- 1785 ई. में तिलका मांझी को भागलपुर में बरगद के पेड़ से फाँसी दे दिया गया।
- झारखंड के स्वतंत्रता सेनानियों में सर्वप्रथम शहीद होने वाले सेनानी तिलका मांझी हैं।
चेरो विद्राह
- यह विद्रोह 1800-1818 ई. तक पलामू में चेरो जनजातियों द्वारा किया गया था।
- 1800 ई. में इसका नेतृत्व भूखन सिंह तथा भूषण सिंह के द्वारा किया गया था।
- सन् 1802 में इस विद्रोही चेरो नेता को फाँसी दे दी गई और इसके बाद यह विद्रोह भी धीरे-धीरे समाप्त हो गया।
हो विद्रोह
यह विद्रोह सन् 1821-22 में छोटानागपुर के ‘हो‘ लोगों ने सिंहभूम के राजा जगन्नाथ सिंह के विरुद्ध किया।
कोल विद्रोह
- यह व्यापक विद्रोह छोटानागपुर पलामू, सिंहभूम और मानभूम की कई जनजातियों का संयुक्त विद्रोह था, जो अंग्रेजों के बढ़ते हस्तक्षेप तथा शोषण के खिलाफ उपजा था। अंग्रेज समर्थित जमींदार इन वर्गों विशेषकर कृषकों का इस तरह से शोषण कर रहे थे।
- मुंडा जनजाति ने बंदगाँव में आदिवासियों की एक सभा बुलाई। इस सभा में लगभग सात कोल आदिवासी आए और वहीं से यह भीषण विद्रोह आरंभ हुआ।
- विद्रोहियों का नेतृत्व बुद्ध भगते, सिंग राय और सूर्य मुंडा कर रहे थे। अंग्रेजी सेना की कमान कैप्टन विल्किंसन के हाथों में थी। बुद्ध भगत अपने डेढ़ सौ सहयोगियों के साथ मारा गया। यह विद्रोह लगभग पाँच साल तक चला।
- कंपनी ने ‘रेगुलेशन – XIII’ नाम से एक नया कानून बनाया, जिसके अंतर्गत रामगढ़ जिले को विभाजित किया गया। एक और अलग नए प्रशासनिक क्षेत्र का गठन किया गया, जिसमें जंगल महाल और ट्रिब्यूटरी महाल के साथ एक नन- रेगुलेशन प्रांत बनाया गया। इस प्रशासनिक क्षेत्र को जनरल के प्रथम एजेंट के रूप में गवर्नर के अधीन किया गया। इस व्यवस्था में विल्किंसन को पहला गवर्नर बनाया गया।
- ‘कोल विद्रोह’ झारखंड के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, क्योंकि इसके अनेक दूरगामी परिणाम हुए।
- इसी विद्रोह ने प्रशासनिक व्यवस्था के सुधार की नींव रखी।
भूमिज विद्रोह
- भूमिज विद्रोह को गंगानारायण हंगामा भी कहा जाता है।
- यह विद्रोह जनजातीय जमीदारों और जनजातीय लोगों का संयुक्त विद्रोह था, जिसकी अगुआई बड़ाभूम के राजा बेलाक नारायण के पोते गंगानारायण ने की थी। इस विद्रोह के पीछे कुछ राजनीतिक कारण तो थे ही, साथ ही मूल रूप से यह विद्रोह आदिवासी उत्पीड़न से उपजा था।
- इस लड़ाई में गंगानारायण मारा गया और खरसावाँ के ठाकुर ने उसका सिर काटकर कैप्टन विल्किंसन को उपहार में भेज दिया।
संथाल विद्रोह
- वीरभूम, ढालभूम, सिंहभूम, मानभूम और बाकुड़ा के जमींदारों द्वारा सताए गए संथाल 1790 ई. से ही संथाल परगना क्षेत्र, जिसे दामिन-ए-कोह कहा जाता था, में आकर बसने लगे। इन्हीं संथालों द्वारा किया गया यह विद्रोह झारखंड के इतिहास में सबसे अधिक चर्चित हुआ। विद्रोह के कारणों में कृषक उत्पीड़न प्रमुख था।
- संथाल जनजाति भी कृषि और वनों पर निर्भर थी, लेकिन जमींदारी प्रथा ने इन्हें इनकी ही भूमि से बेदखल करना शुरू कर दिया था।
- सन् 1855 में हजारों संथालों ने भोगनाडीह के चुन्नु माँझी के चार पुत्रों-सिद्धू, कान्हू, चाँद तथा भैरव के नेतृत्व में एक सभा की, जिसमें उन्होंने अपने उत्पीड़कों के विरुद्ध लामबंद लड़ाई लड़ने की शपथ ली। उन्होंने एकजुट होकर अपनी भूमि से दीकुओं को चले जाने की चेतावनी दी। इन दीकुओं में अंग्रेज और उनके समर्थित कर्मचारी, अधिकारी तथा जमींदार आदि थे।
- इसी बीच दरोगा महेशलाल दत्त की हत्या कर दी गई। चेतावनी देने के दो दिन बाद संथालों ने अपने शोषकों को चुन-चुनकर मारना शुरू कर दिया।
इस विद्रोह का मुख्य नारा था- “करो या मरो, अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो।” - हजारीबाग में इस विद्रोह का नेतृत्व लुबाई माँझी एवं अर्जुन माँझी ने तथा वीरभूम में गोरा माँझी ने किया था। इस विद्रोह का दमन करने हेतु 7 जुलाई, 1855 को जनरल लायड को भेजा गया था।
- अंग्रेजों ने इस विद्रोह के दौरान संथाल विद्रोहियों से बचाव हेतु पाकुड़ में मार्टिलो टावर का निर्माण कराया था।
- संथाल विद्रोहियों ने पाकुड़ की रानी क्षमा सुंदरी से इस विद्रोह के दौरान सहायता मांगी थी।
- चाँद और भैरव गोलियों के शिकार हो वीरगति को प्राप्त हुए। सिद्धू और कान्हू पकड़े गए, उन्हें बरहेट में 5 दिसंबर,1855 को फाँसी दे दी गई।
- जनवरी 1856 ई. तक संथाल परगना क्षेत्र में संथाल विद्रोह को दबा दिया गया। इस संथाल विद्रोह के परिणामस्वरूप 30 नवंबर, 1856 ई. को विधिवत संथाल परगना जिला की स्थापना की गई और एशली एडेन को प्रथम जिलाधीश बनाया गया। प्रत्येक साल इस विद्रोह की याद में राज्य में ‘हूल’ अर्थात् संथाल विप्लव दिवस 30 जून को मनाया जाता है।
सरदारी आंदोलन
- 1850 ई. और उसके बाद इस क्षेत्र में अनेक आदिवासियों द्वारा ईसाई धर्म अपना लेने से भूमि की समस्या और बदतर हो गई। ईसाई धर्म के व्यापक प्रचार-प्रसार के विरुद्ध जनजातीय सुधारवादी आंदोलन चले। इन्हीं में सरदारी आंदोलन सन् 1859 से 1881 के मध्य चला।
- इसका उल्लेख एस. सी. राय ने अपनी पुस्तक ‘द मुंडाज’ में किया है। वास्तव में यह भूमि के लिए लड़ाई थी।
- सामान्यतः यह आंदोलन तीन चरणों में पूर्ण हुआ। प्रथम भूमि आंदोलन (1858-81 ई.), द्वितीय पुराने मूल्यों को पुनः स्थापना संबंधी आंदोलन (1881-90 ई.) और तृतीय राजनीतिक आंदोलन (1890-95 ई.)।
खरवार आंदोलन (1874)
खरवार (संथाल) आंदोलन, जिसका नेतृत्व भागीरथ माँझी ने किया था, का उद्देश्य प्राचीन मूल्यों और जनजातीय परंपराओं को पुनः स्थापित करना था। आंदोलन के प्रति पूर्ण समर्पण वाले सफाहोर कहलाए और उदासीन लोग बाबजीया कहलाए। बेमन पूजकों को मेलबरागर कहा गया। इस आंदोलन को ही साफा-होर आंदोलन भी कहा जाता है।
टाना भगत आंदोलन
- यह आंदोलन बिरसा आंदोलन से ही जनमा था। यह भी एक बहुआयामी आंदोलन था, क्योंकि इसके नायक भी अपनी सामाजिक अस्मिता, धार्मिक परंपरा और मानवीय अधिकारों के मुद्दों को लेकर आगे आए थे। यह आंदोलन सन् 1914 में शुरू हुआ।
- टाना भगत कोई व्यक्ति नहीं, बल्कि उराँव जनजाति की एक शाखा थी, जिसने कुडुख धर्म अपनाया था।
- इस आंदोलन के नायक के नाम पर ‘जतरा भगत’ नामक नौजवान को मान्यता मिली थी, जो अलौकिक सिद्धियों में रत रहता था। जनश्रुति के आधार पर इसी जतरा भगत को ‘धर्मेश‘ नामक उराँव देवता ने दर्शन दिए थे और उसे कुछ निर्देश देकर इस आंदोलन को शुरू करने की आज्ञा दी थी।
- जतरा भगत लोगों में जल्दी ही वह बहुत लोकप्रिय हो गया और लोग उसकी प्रत्येक बात को आत्मसात् करने लगे। इससे अंग्रेज घबरा गए और उन्होंने जतरा भगत को गिरफ्तार कर लिया। इससे उराँव लोगों में रोष फैल गया। अंग्रेज इस आंदोलन से संबंधित सभी लोगों को गिरफ्तार करने में जुट परिणाम यह हुआ कि हिंसा भड़क उठी और एक सामाजिक जनजागरण व्याप्त हो गया। अंग्रेजों ने बड़ी क्रूरता से इस नांदोलन को दबा दिया, फिर भी यह आंदोलन सामाजिक चेतना जगाने में सफल रहा।