शिक्षा का वैश्वीकरण व अन्तर्राष्ट्रीय प्रयास

सन् 1970 में गठित अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा आयोग द्वारा शिक्षा में वैश्वीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ की गयी थी जिसकी अध्यक्षता फ्रांस के प्रधानमंत्री एडगर फोरे ने की व अपनी रिपोर्ट “Learning to B” 1972) में उन्होंने एक अध्ययनशील समाज की संकल्पना पर बल दिया। इसके पश्चात् थाइलैण्ड में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में जिसका मुख्य विषय “सबके लिए शिक्षा” था, में सन् 2000 तक विश्व के लोगों को शिक्षा प्रदान करने का लक्ष्य व्यक्त किया गया।

20वीं शताब्दी के अन्तिम तीन दशकों में सूचना प्रौद्योगिकी का प्रसार तेजी से हुआ। एक देश की गतिविधियों ने दूसरे देश की गतिविधियों को प्रभावित किया। ऐसी स्थिति में शिक्षा की भूमिका पर विचार करने के लिए UNESCO ने 1991 में जेक्स डेलर्स की अध्यक्षता में एक अन्तर्राष्ट्रीय आयोग नियुक्त किया जिससे 1996 में अपनी रिपोर्ट Learning the Treasure Within में इस आयोग ने शिक्षा को वैश्वीकरण की दिशा में मील का पत्थर बताया।

रिपोर्ट में शिक्षा के चार प्रमुख उद्देश्यों

  1. Learning to know.
  2. Learning to do
  3. Learning to live together
  4. Learning to be

की चर्चा की गई है। इस रिपोर्ट के अनुसार शिक्षा ही एकमात्र ऐसा साधन है जिसके द्वारा न सिर्फ व्यक्ति बल्कि समाज का विकास भी सम्भव है।

वैश्वीकरण का शिक्षा पर प्रभाव (IMPACT OF GLOBALIZATION ON EDUCATION)

एक सुव्यवस्थित व सुसंस्कृत सम्पूर्ण विकास के लिए अच्छी शिक्षा परमावश्यक है। शिक्षा एवं साक्षरता के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैये को देखते हुए हम सूचना व प्रौद्योगिकी की चमक को कहाँ तक बरकरार रख सकते हैं। मौलिक अधिकारों के अनुसार भी ‘शिक्षा पर सबका समान अधिकार है, परन्तु अब यह मौलिक अधिकार नहीं मात्र धनी वर्ग का अधिकार बन गया है। शिक्षा को सार्वजनिक पकड़ से दूर करके इसके निजी एकाधिकार पर अधिक बल दिया जा रहा है। शिक्षा का बाजारीकरण कर निजीकरण करने की कई बातें चल रही है जिसके परिणामस्वरूप शिक्षा बाजार की वस्तु बन जायेगी. विद्यालय / महाविद्यालय दुकान हो जाएंगे और इन सबकी नकेल किसी बड़ी कम्पनी के हाथों में होंगी। अतः वैश्वीकरण की नीतियाँ आम जनता के हित में नहीं है क्योंकि वैश्वीकरण प्रकृति के साधनों को बेरहमी से लूटता है और वह हथियारों की शक्ति, पूँजी की शक्ति और ज्ञान या टेक्नोलॉजी की शक्ति से कमजोर देशों को अपना गुलाम बनाता है।

वैश्वीकरण का एक प्रभाव यह भी है कि शिक्षा पर दी जाने वाली सब्सिडी में कटौती हो रही है। शिक्षा को ठेके पर दिये जाने की व्यवस्था की जा रही है क्योंकि समाज के एक वर्ग का मानना है कि समाज के सभी वर्गों को शिक्षा प्राप्त करने का अवसर प्राप्त होगा जबकि वास्तविकता यही दर्शा रही है कि निजीकरण केवल मध्यम तथा उच्च वर्ग को फायदा पहुँचा रहा है। आज देश में 36 करोड़ लोग अशिक्षित हैं ये सरकारी आँकड़े हैं तथा यथार्थ में परिदृश्य और भी भयानक है। देश के करीब 260 विश्वविद्यालयों की अस्मिता इस समय खतरे में पड़ गयी है। देश में शिक्षा के क्षेत्र में समानता होने की बजाय असमानता बढ़ रही है। जहाँ 1991 में राजस्थान के आदिवासियों के बीच साक्षरता दर 19% थी वहीं पर मिजोरम में 90% थी। आज भारत महँगी शिक्षा पद्धति के कारण एक तरफ धनी तो दूसरी ओर निर्धन लोगों का देश बनकर रह गया है। अब शिक्षा प्राप्त करना गरीबों के वश की बात नहीं है। विश्व विद्यालय में सरकार सब्सिडी में कटौती कर रही है जिससे विद्यालयों/महाविद्यालयों की फीस में कई गुना वृद्धि हो रही है। अतः विश्व में बहुसंख्यक लोगों के लिए वैश्वीकरण ने अच्छे परिणाम नहीं दिये है बल्कि देशों के अन्दर तथा देशों के बीच में आमदनी की असमानताएँ बढ़ा दी हैं।

वर्तमान वैश्वीकरण के दौर में शिक्षा का विस्तार शहरी क्षेत्रों में ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक व्यापक व तीव्र गति से हुआ है। शिक्षा स्तर व गुणवत्ता के मध्य खाई बढ़ी है। जहाँ कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे प्राथमिक स्तर पर ही आधुनिक सूचना व संचार माध्यमों से शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं वहीं देश के अधिकतर बच्चे खुले आसमान के नीचे बिना कापी पुस्तक के शिक्षा प्राप्त करने को बाध्य है। इस व्यवस्था ने शैक्षिक बेरोजगारी को भी बढ़ावा दिया है। उद्योगपति अपने उद्योगों में देश के कुछ प्रमुख व ख्याति प्राप्त विद्यालयों से ही रोजगार दे पाने में ही सक्षम होते हैं तथा असंख्य विद्यार्थी व्यावसायिक डिग्री लिए दिशाहीन होकर सड़कों पर घूम रहे हैं तथा यह सब वैश्वीकरण का ही प्रभाव है कि सरकार द्वारा सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से पिछड़े विद्यार्थी को शिक्षा के समान अवसर की सचेष्टता के बावजूद आज भी देश के बहुत से विद्यार्थी आरक्षण व वजीफे की व्यवस्था के कारण ही अपनी शिक्षा पूरी कर पाते हैं और निजी संस्थान तो केवल अपनी आर्थिक आमदनी से मतलब रखने के कारण किसी को इतनी सुविधाएँ प्रदान नहीं करते हैं।

इस प्रकार वैश्वीकरण के कारण देश में जो आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक व सांस्कृतिक परिवर्तन हुए हैं, इन परिवर्तनों ने हमारे शिक्षातंत्र को अत्यधिक प्रभावित किया है। आज से लगभग ढाई दशक पूर्व के विद्यार्थी की ज्ञान पिपासा को शांत करने का मुख्य आधार शिक्षक था, क्योंकि छात्रों के पास रेडियो टेलीविजन, समाचार-पत्र एवं पत्रिकाएँ बहुत कम उपलब्ध हो पाती थीं तथा इंटरनेट व कम्प्यूटर तो उपलब्ध ही नहीं था, परन्तु विद्यार्थियों के पास जो कल्पनाएँ, जिज्ञासाएँ व प्रश्नों का भण्डार होता था उसके समाधान का एकमात्र स्रोत शिक्षक ही था परन्तु आज शिक्षक की भूमिका में बदलाव आ गया है। पहले शिक्षक को ज्ञान के स्रोत के रूप में केन्द्रीय स्थान मिलता था, वह सीखने-सिखाने की समूची प्रक्रिया का संरक्षक व प्रबन्धक था. परन्तु अब उसकी भूमिका ज्ञान के स्रोत के बदले एक सहायक ही हो गई है। जो सूचना को ज्ञान या बोध में बदलने की प्रक्रिया में विविध उपायों में शिक्षार्थियों को उनके शैक्षणिक लक्ष्यों की पूर्ति में मदद करता है।

शिक्षा के क्षेत्र में सूचना प्रौद्योगिकी के प्रयोग ने भी काफी बदलाव ला दिया है। आज शिक्षा में सूचना सम्प्रेषण तकनीकी के सशक्त माध्यमों का सफलतापूर्वक प्रयोग किया जा रहा है। एन. सी. ई. आर. टी. दिल्ली एवं SCERT द्वारा बच्चों को सूचना प्रौद्योगिकी की शिक्षा देने में कम्प्यूटर के प्रयोग को को वरीयता दी जा रही है। आज शिक्षक पॉवर प्वाइन्ट प्रेजेन्टेशन के माध्यम से मल्टीमीडिया का प्रयोग कक्षा शिक्षण में विषयवस्तु को रुचिकर, सहज एवं सुग्राह्य बनाने में कर रहा है। इसके अतिरिक्त विद्वान शिक्षकों के व्याख्यानों को इंटरनेट के द्वारा छात्रों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है जिससे सुदूर क्षेत्रों में अध्ययनरत छात्र भी विषय विशेषज्ञों के ज्ञान से परिचित हो जाता है। इस प्रकार वर्तमान वैश्वीकरण के युग में उच्च शिक्षा की विषय-वस्तु, अध्यापन आवश्यकताएँ तथा अध्यापकीय दृष्टिकोण सभी बदल गए हैं। जिसके कारण आज परम्परागत शिक्षण विधियों के स्थान पर नवीन विधियों के द्वारा विद्यार्थी को स्वअधिगम हेतु प्रोत्साहित किया जा रहा है। इस शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में विद्यार्थी की सक्रिय भागीदारी होती है और उन्हें सहयोग द्वारा सीखने के लिए वांछित वातावरण प्रदान किया जाता है। अतः आज वैश्वीकरण के प्रभाव से शिक्षा और समाज दोनों के क्षेत्र में बदलाव आ गया है। अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षक आयोग (1996) के अध्यक्ष जे. डेलर्म एवं सहयोगियों के अनुसार शिक्षा के चार स्तम्भ – ज्ञान के लिए शिक्षा कार्य के लिए शिक्षा सह-अस्तित्व की शिक्षा तथा अस्तित्व की शिक्षा है। इन चारों स्तम्भों को पूर्ण करने के लिए शिक्षा प्रणाली में सुधार लाना होगा तथा शिक्षा को छात्रों को स्वाध्याय व विवेकशील चिन्तक बनाने के लिए प्रेरित करना होगा।

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