भाषा से मनुष्य मातृभाषा का हमारे जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। उसके बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। वह हमारे जीवन का अविच्छिन्न अंग है। वह हमें पशु और मूक से वाचाल बनाती है वही हमारे मन के भावों को दूसरों पर प्रकट करने और दूसरे के भावों को ग्रहण करने का सबसे सरल साधन है। हम सोते जागते, उठते बैठते जो कुछ सोचते विचारते हैं वह अपनी मातृभाषा के माध्मय से ही करते हैं।
कम आयु के बालक के मानसिक और बौद्धिक विकास पर उसके व्यक्तित्व का विकास निर्भर करता है। केवल मातृभाषा के उचित शिक्षण द्वारा ही बालक का मानसिक और बौद्धिक विकास की दृष्टि से व सन्तुलित व्यक्तित्व के विकास की दृष्टि से भी सबसे अधिक महत्व मातृभाषा शिक्षण की उचित व्यवस्था का है। उपर्युक्त कार्य मातृभाषा के माध्यम से सम्भव है।
मातृभाषा का सम्बन्ध केवल भाव प्रकाशन से ही नहीं होता बल्कि वह देश की परम्परा एवं संस्कृति से भी सम्बद्ध होता है। अतः मातृभाषा का गहन अध्ययन करते हुए बालक अपनी संस्कृति से परिचित होता है। उसका सम्पूर्ण वातावरण उसकी मातृभाषा में प्रतिबिम्बित होता है। वह अपने चारों ओर के प्राकृतिक दृश्यों, पशुपक्षियों, कीटपतंगों को अपनी मातृभाषा के माध्यम से जानता पहचानता है। इसका कारण यह है कि उनके नाम वह अपनी मातृभाषा में सुनता है, प्रचलित भाषा में सुनता है। उनकी बोली को प्रचलित भाषा में व्यक्त करता है। इस प्रकार उसका जीवन मातृभाषमय होता है।
व्यक्ति की प्रचलित (मातृभाषा) भाषा ही उसके मनन-चिन्तन एवं अनुभूति का साधन है। इसी से बच्चे को सर्वप्रथम मातृभाषा का ज्ञान कराना चाहिए. प्रारम्भिक शिक्षा में उसको मातृभाषा में ज्ञान प्रदान कराना चाहिए। प्रारम्भिक शिक्षा में उनको मातृभाषा का इतना पर्याप्त ज्ञान करा देना चाहिए कि वे उसमें अपने भाव मौखिक एवं लिखित रूपों में भली-भाँति व्यक्त कर सकें तथा अन्य भाषाओं को भी उसी प्रचलित भाषा के माध्यम से प्राप्त कर सकें।
रायबर्न के मतानुसार – “जब कोई बच्चा अपनी मातृभाषा का व्यवहार करने एवं मातृभाषा के माध्यम से सौंदर्य की अनुभूति करने तथा काव्य का रसास्वादन करने योग्य नहीं बना दिया जाता, तब तक वह सुयोग्य नागरिक नहीं हो सकता।
इस सन्दर्भ में महात्मा गाँधी के विचारों को उद्धत करना गलत नहीं होगा उनके मतानुसार – “मनुष्य के मानसिक विकास के लिए मातृभाषा उतनी ही आवश्यक है जितनी कि बच्चे के शारीरिक विकास के लिए माता का दूध, बालक पहला पाठ अपनी माता से ही पढ़ता है इसलिए इसके मानसिक विकास के लिए सबके ऊपर मातृभाषा के अतिरिक्त कोई दूसरी भाषा लादना मैं मातृभाषा के विरुद्ध पाप समझता हूँ।”
हिन्दी भाषा का क्षेत्र बहुत विस्तृत है यह उत्तरी भारत के अधिकांश क्षेत्र में व्याप्त है। इस क्षेत्र के प्रारम्भिक विद्यालयों में तो यह अनिवार्य रूप से पढ़ाई ही जाती है, माध्यमिक कक्षाओं में भी उसे अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाना चाहिए। प्राथमिक शिक्षा के शिक्षकों का कर्त्तव्य है कि वे आरम्भ में बच्चों को हिन्दी बोलने का अभ्यास कराएँ जिससे घर की बोली का उस पर प्रभाव धीरे-धीरे कम हो जाए। किसी-किसी भाग में उच्चारण में इतनी भिन्नता होती है कि हिन्दी का ठीक-ठीक उच्चारण करना कठिन होता है। जैसे राजस्थान, पंजाब एवं उत्तरांचल तथा हिमाचल प्रदेश के कुछ भागों, बिहार के उत्तरी-पूर्वी एवं दक्षिणी भागों में उच्चारण की इतनी भिन्नता है कि जब तक बच्चों को विशेष अभ्यास न कराया जाए तब तक वे साहित्यिक हिन्दी का शुद्ध उच्चारण नहीं कर सकते।
इस वृहद् क्षेत्र की मातृभाषा हिन्दी तभी सार्थक मानी जा सकती है जब इसे वास्तव में मातृभाषा के रूप में पढ़ाया जाए अर्थात् बच्चों को हिन्दी का इतना अच्छा ज्ञान करा दिया जाए कि वे उसके माध्यम से मौखिक एवं लिखित दोनों रूपों में अपने भाव धाराप्रवाह व्यक्त कर सकें। इसके लिए यह आवश्यक है कि भाषा की शुद्धता केवल हिन्दी की कक्षा में न देखी जाए. बल्किसभी विषयों के शिक्षक भाषा की शुद्धता पर ध्यान दें।