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निर्देशन से क्या तात्पर्य है? एवं उसके उद्देश्य विधियाँ एवं सोपान

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व्यक्तिगत भिन्नता की अवधारणा को स्वीकार करने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्ति के विकास के लिए निर्देशन का होना आवश्यक है। यह निर्देशन व्यक्तिगत भिन्नताओं के आधार पर दिया जाता है।

‘निर्देशन’ एक व्यक्तिगत कार्य है जो किसी अन्य व्यक्ति को उसकी समस्याओं का समाधान करने के लिए दिया जाता है। निर्देशन उन समस्याओं का समाधान स्वयं नहीं करता है, वरन् ऐसी विधियाँ बताता है, जिनका प्रयोग करके व्यक्ति उन समस्याओं को स्वयं सुलझा सकता है। जिस व्यक्ति को निर्देशन दिया जाता है, वह उसे स्वीकार या अस्वीकार करने के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्र होता है।

निर्देशन से क्या तात्पर्य है? एवं उसके उद्देश्य विधियाँ एवं सोपान

निर्देशन क्या है?

इसका उत्तर क्रो एवं क्रो ने अपनी पुस्तक “An Introduction to Guidance” में इन शब्दों में दिया है- “निर्देशन आदेश नहीं है। यह एक व्यक्ति के दृष्टिकोण को दूसरे व्यक्ति पर लादना नहीं है। यह एक व्यक्ति के लिए उन निर्णयों का करना नहीं है जो स्वयं करने चाहिए। यह किसी दूसरे के जीवन के उत्तरदायित्वों को वहन करना नहीं है।”

यदि ‘निर्देशन’ इन बातों में से कुछ भी नहीं है, जो फिर क्या है ?

इसका उत्तर स्वयं क्रो व क्रो ने इन शब्दों में दिया है- “निर्देशन व्यक्तिगत रूप से योग्य और पर्याप्त प्रशिक्षण प्राप्त मनुष्यों या स्त्रियों से किसी आयु के किसी व्यक्ति को प्राप्त होने वाली सहायता है, जो उसे अपनी स्वयं के जीवन के कार्यों को व्यवस्थित करने अपने स्वयं के दृष्टिकोणों को विकसित करने, अपने स्वयं के निर्णयों को करने की प्रक्रिया है।

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निर्देशन’ के अर्थों को स्पष्ट करते हुए स्किनर ने लिखा है- “निर्देशन, नवयुवकों को अपने से, दूसरों से और परिस्थितियों से सामंजस्य करना सीखने के लिए सहायता देने की प्रक्रिया है।

इन परिभाषाओं पर विचार करने के पश्चात् हम कह सकते हैं कि-

  1. निर्देशन एक प्रकार की व्यक्तिगत सहायता है।
  2. निर्देशन द्वारा व्यक्ति के भावी जीवन की तैयार की जाती है।
  3. इसके द्वारा व्यक्ति के जीवन को सुखी बनाने का प्रयास किया जाता है।
  4. परिस्थितियों से समायोजन किया जाता है।

निर्देशन का उद्देश्य (Aims of Guidance) –

विद्यालयों में अध्ययन करने वाले छात्र अल्प आयु के होते हैं, उनके मस्तिष्क अपरिपक्व होते हैं, उनको जीवन का अनुभव नहीं होता है । अत: उनके जीवन में ऐसे अनेक अवसर आते हैं, जब वे उचित चुनाव नहीं कर पाते हैं। निर्देशन का उद्देश्य ऐसे अवसरों पर छात्रों की सहायता करना है।

इस सम्बन्ध में स्किनर ने लिखा है- ”आधुनिक शिक्षा में निर्देशन का विशिष्ट उद्देश्य है। प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यताओं, रुचियों और अवसरों के अनुकूल चुनाव करने में सहायता देना है।”

छात्रों को कभी-कभी उचित प्रकार के चुनाव करने में तो कठिनाई होती है, पर उनके सामने ऐसे अवसर भी आते हैं, जब वे अपनी दैनिक समस्याओं को सुलझाने में असमर्थ रहते हैं। ऐसे अवसरों पर निर्देशन उनको सहायता देता है।

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अतः हम रिस्क के शब्दों में कह सकते हैं-“ निर्देशन का उद्देश्य छात्रों को उनकी व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान करने में सहायता देना है। उचित प्रकार के निर्देशन से छात्रों में अपनी स्वयं की समस्याओं को सुलझाने की क्षमता का विकास होता है। निर्देशन का आधारभूत उद्देश्य आत्म-निर्देशन है।”

निर्देशन की विधियाँ व सोपान (Guidance methods and Steps) –

छात्रों को निर्देशन देने के लिए साधारणतः दो विधियों का प्रयोग किया जाता है; यथा-

  • व्यक्तिगत निर्देशन- इस विधि में एक समय में केवल एक छात्र को निर्देशन दिया जाता है। महँगी होने के कारण इस विधि का प्रयोग कम किया जाता है।
  • सामूहिक निर्देशन- इस विधि में एक समय में अनेक छात्रों को निर्देशन दिया जाता है। यह विधि व्यक्तिगत निर्देशन की विधि से निम्नतर है क्योंकि इस विधि में धन और समय कम लगता है, इसलिए अधिकतर इसी का प्रयोग किया जाता है। दोनों विधियों में लगभग एक से ही सोपानों यां चरणों का अनुसरण किया जाता है।

हम इनमें से मुख्य सोपानों का निम्नलिखित हैं-

  1. साक्षात्कार- परामर्शदाता, छात्रों से साक्षात्कार करके उनकी रुचियों, समस्याओं, आवश्यकताओं आदि की जानकारी प्राप्त करता है ।
  1. प्रश्नावली – परामर्शदाता, छात्रों के बारे में जिन बातों को जानना चाहता है, उनके सम्बन्ध में एक या अनेक प्रश्नावलियों को तैयार करता है। छात्रों के द्वारा दिये गये उन प्रश्नों के उत्तरों का विश्लेषण करके परामर्शदाता उनके विचारों और धारणाओं से अवगत होता है।
  2. संचित अभिलेखों का अध्ययन- विद्यालय में प्रत्येक बालक का एक संचित अभिलेख होता है, जिसमें उसकी रुचियों, आदतों, अभिवृत्तियों, विशिष्टताओं का अंकन होता है । परामर्शदाता इन अभिलेखों का अध्ययन करके छात्रों के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं के बारे में अपनी राय कायम करता है।
  3. मनोवैज्ञानिक परीक्षण- परामर्शदाता, छात्रों की बुद्धि के स्तरों, विभिन्न रुचियों, मानसिक योग्यताओं और पाठ्य विषयों में उपलब्धियों का मूल्यांकन करने के लिए बुद्धि, रुचि और उपलब्धि का प्रयोग करता है।
  4. अनुस्थापना वार्तालाप- परामर्शदाता, छात्रों से वार्तालाप करता है। इसके दौरान वह उनकी रुचियों, क्षमताओं, आवश्यकताओं, व्यावसायिक उद्देश्यों आदि के सम्बन्ध में तथ्यों का संकलन करता है। साथ ही, वह उनको निर्देशन का महत्त्व समझाकर अपने बारे में परामर्श लेने के लिए प्रोत्साहित करता है
  5. पारिवारिक दशाओं का अध्ययन- परामर्शदाता, छात्रों की पारिवारिक दशाओं का अध्ययन करता है। इस अध्ययन के द्वारा वह उनके परिवारों की आर्थिक और सामाजिक दशाओं में उनके प्रति उनके माता-पिता के व्यवहार आदि से सम्बन्धित तथ्यों का संग्रह करता है।
  6. अनुगामी कार्यक्रम –परामर्शदाता का कार्य निर्देशन देने के बाद समाप्त नहीं हो जाता है। उस पर यह जानने का उत्तरदायित्व रहता है कि छात्र उसके निर्देशन का अनुसरण करके प्रगति कर रहे हैं या नहीं, तो वह उनको नए सिरों से फिर निर्देशन देता है।

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