खेल की अवधारणा एवं महत्व

खेल मानव जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है। खेल केवल मनोरंजन का साधन नहीं है अपितु स्वस्थ शरीर का निर्माण करने का एक माध्यम भी है। खेल खेलना एक प्राकृतिक मनोवृत्ति है। बाल्यावस्था में बालक स्वतः ही खेल सम्बन्धी क्रियाओं की ओर आकर्षित होकर खेलों में संलग्न होता है और उससे उसे आत्मिक आनंद की प्राप्ति होती है। इसीलिए प्रारम्भिक कक्षाओं में खेल-खेल में शिक्षा के सिद्धांत को प्रयोग में लाया गया है। आयु बढ़ने के साथ अनेक उत्तरदायित्वों का भार कंधों पर आने से रुचि के बावजूद खेलों के लिए समय नहीं निकाल पाता है। जबकि खेलों का सन्तुलित शारीरिक विकास, मानसिक एवं सामाजिक विकास की दृष्टि से महत्त्व अद्वितीय है। सर्वप्रथम खेल से क्या आशय है ? इसको समझना आवश्यक है। जब व्यक्ति स्वप्रेरित होकर मनोरंजन के उद्देश्य से कोई क्रिया करता है तो उसे खेल कहते हैं। कुछ विद्वानों द्वारा खेल के बारे में दी गई परिभाषाओं पर विचार करना आवश्यक है-

क्रो एवं क्रो के अनुसार – खेल वह क्रिया है जिसे व्यक्ति स्वप्रेरणा से उस समय करता है जब वह स्वतंत्र होता है।

रॉस के अनुसार- खेल एक ऐसी क्रिया है जो व्यक्ति को प्राकृतिक रूप में प्रशिक्षित करती है।

हरलॉक के अनुसार– आनन्द प्राप्ति के उद्देश्य से बिना अंतिम परिणाम पर विचार किए जो क्रिया की जाती है खेल कहलाती है।

तीनों परिभाषाएँ खेल के बारे में अलग-अलग धारणा प्रकट करती हैं। यदि तीनों परिभाषाओं से मुख्य बिन्दु से लिए जाएँ तो खेल को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है स्वप्रेरणा से आनन्द प्राप्ति के उद्देश्य से की जाने वाली क्रिया जो प्राकृतिक रूप में प्रशिक्षित करें खेल कहलाती है।

खेलों का महत्त्व –

शिक्षक को खेलों के महत्त्व से अवगत होना आवश्यक है। जब शिक्षकों को खेलों की उपयोगिता का लाभ का ज्ञान होगा तभी वे अपने छात्रों को खेलों का महत्त्व स्पष्ट कर उनको खेलों में भाग लेने के लिए अभिप्रेरित कर सकेंगे। खेल के उद्देश्यों को निम्नलिखित विद्वानों ने निम्न प्रकार स्पष्ट किया है-

  1. फ्रॉबेल के अनुसार– बालक की खेलने की प्रवृत्ति को सन्तुष्ट करना खेल का उद्देश्य है।
  2. स्टेनले हाल के अनुसार- बालक की बुरी भावनाओं, विचारों और नैसर्गिक प्रवृत्तियों का परिष्कार करना खेलों का उद्देश्य है।
  1. शिलर एवं स्पेनसर के अनुसार– खेलकूद का उद्देश्य बालक का शारीरिक, मानसिक और नैतिक विकास करना है।

प्रारम्भ में शिक्षा शिक्षक केन्द्रित होती थी। उसके बाद शिक्षा पाठ्यक्रम केन्द्रित हो गई लेकिन मनोवैज्ञानिक प्रगति ने शिक्षा को बाल केन्द्रित बनायाशिक्षा के बाल केन्द्रित होने पर ही विद्यालयों में खेलकूद को महत्त्व दिया जाने लगा क्योंकि शिक्षाशास्त्रियों ने अनुभव किया कि शारीरिक विकास के बिना मानसिक विकास सम्भव नहीं है। खेलों के शारीरिक अंगों में स्फूर्ति और चंचलता, हृदय में आनन्द और प्रसन्नता तथा मन में उत्साह के भाव भरकर ये हमारी जीवन शक्ति को बढ़ा देते हैं। इनसे ही बालकों का सर्वांगीण विकास होता है। खेलों का महत्त्व निम्न बिन्दुओं से स्पष्ट है-

  1. खेल ऐसा व्यायाम है जिससे अस्थियाँ मजबूत होती हैं और द्रुत गति से श्वास लेने से ऑक्सीजन शरीर में अधिक मात्रा में प्रविष्ट होकर शुद्ध रक्त के परिभ्रमण में सहायक होती है।
  2. सामाजिक गुणों के विकास में सहायक सामूहिक खेलों में भाग लेने से बालको में सहयोग, सहनशीलता, सहानुभूति, अनुशासन, परस्पर निर्भरता जैसे सामाजिक गुणों का विकास होता है।
  1. मानसिक विकास में सहायक – यह कथन सत्य है कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है। खेल बच्चों में चिन्तन, तर्क शक्ति, विश्लेषण क्षमता आदि मानसिक गुणों का विकास करते हैं।
  2. अवकाश के समय के सदुपयोग में सहायक- खेल बालकों के अवकाश के क्षणों का सदुपयोग में सहायक होकर उन्हें अनुचित गतिविधियों में पड़ने से बचाते हैं।
  1. अनुशासनात्मक गुणों का विकास खेतों में भाग लेने से बालकों में नियमों का पालन करने, आज्ञाकारिता की भावना, परस्पर सहयोग करने जैसे अनुशासनात्मक गुणों का विकास होता है।
  1. प्रजातांत्रिक गुणों का विकास खेल बालकों को अधिकारों के साथ कर्तव्यों के पालन का पाठ भी सिखाते हैं।
  2. ये दूसरों की भावनाओं का सम्मान करने का प्रशिक्षण देते हैं ।
  3. मनोवैज्ञानिक विकास में सहायक- व्यक्ति के जीवन काल में किशोरावस्था का महत्त्वपूर्ण स्थान है। किशोरावस्था में अतिरिक्त शक्ति होती है जो खेलों द्वारा उचित स्रोतों में प्रवाहित होकर शुभ मार्ग ग्रहण करती है।
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