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बाल्यावस्था में शिक्षा | Education during Childhood B.Ed Notes

Published by: Ravi Kumar
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बाल्यावस्था में शिक्षा का महत्व

बाल्यावस्था में शिक्षा एक महत्वपूर्ण है जो एक बच्चे के जीवन को आकार देता है। इस अवधि में शिक्षा बच्चे की मानसिक, शारीरिक और सामाजिक विकास को प्रभावित करती है। यह उन्हें ज्ञान, अनुशासन और नैतिक मूल्यों की सीख देती है।

बाल्यावस्था में शिक्षा | Education during Childhood B.Ed Notes

बाल्यावस्था में शिक्षा – इस अवस्था में बालक विद्यालय जाने लगता है और उसे नवीन अनुभव प्राप्त होते हैं। औपचारिक तथा अनौपचारिक शिक्षा प्रक्रिया के मध्य उसका विकास होता है।

ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन के अनुसार व्यक्ति की मूल प्रवृत्तियाँ, मूल्य एवं आदर्श काफी हद तक बचपन में ही बनते हैं। इस प्रकार यह अवस्था जीवन की आधारशिला है। शिक्षा आरंभ करने की दृष्टि से भी यह बहुत उपयुक्त माना जाता है।

शिक्षा विकास की एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। बच्चे की वृद्धि और विकास की पूरी जिम्मेदारी माता-पिता, शिक्षक और समाज पर होती है। इसलिए बच्चे के स्वरूप का निर्धारण करते समय निम्नलिखित बातों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है:

  • शारीरिक विकास पर ध्यान (Attention on Physical Development) – शारीरिक विकास बचपन के पहले तीन वर्षों (6 से 9) के दौरान होता है। यह विकास पिछले तीन वर्षों (9 से 12) से जारी है। बचपन में हड्डियां मजबूत हो जाती हैं और मांसपेशियां नियंत्रित होने लगती हैं। इसलिए खेल आदि के विशेष आयोजन किये जाने चाहिए और विद्यार्थियों को भाग लेने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। अच्छा वातावरण भी उपलब्ध कराया जाए।
  • भाषा विकास पर ध्यान (Attention on Language Development) – प्रारंभ से ही बच्चे के भाषा विकास पर ध्यान देना चाहिए। इसके लिए उचित विषयों पर बातचीत करनी चाहिए, कहानियाँ सुनानी चाहिए, बच्चों की पत्रिकाएँ पढ़ने को देनी चाहिए। विद्यालय में वाद-विवाद, भाषण, कहानी प्रतियोगिता तथा कविता पाठ आदि में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
  • उपयुक्त विषयों का चुनाव (Selection of Subjects) – बच्चे के लिए कुछ ऐसे विषयों का अध्ययन करना आवश्यक है जो उसकी जरूरतों को पूरा कर सकें और उसके लिए फायदेमंद भी हों जैसे भाषा, अंकगणित, विज्ञान, सामाजिक अध्ययन, ड्राइंग, पेंटिंग, सुलेख, पत्र लेखन, निबंध रचना आदि।
  • रोचक विषय सामग्री (Interesting Subject Matter) – बच्चे रुचि के मामले में अलग-अलग होते हैं, इसलिए बच्चों की किताबों की सामग्री रोचक और विविध होनी चाहिए। बच्चों की किताबों में नाटक, वीर पुरुष, साहसी कार्य, आश्चर्यजनक बातें, शिकार आदि से संबंधित सामग्री होनी चाहिए।
  • बाल मनोविज्ञान पर आधारित शिक्षा (Education based on Child Psycho Education)– लड़के-लड़कियों को कठोर अनुशासन पसंद नहीं होता, उन्हें डांट-फटकार, शारीरिक दंड, बल प्रयोग आदि से नफरत होती है। इस अवस्था के बच्चों के लिए सहयोग, प्रेम और सहानुभूति पर आधारित शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए।
  • खेल एवं क्रिया द्वारा शिक्षा (Education through Play and Activity) – बचपन में पढ़ाने का तरीका रोचक और गतिविधि एवं खेल के सिद्धांत पर आधारित होना चाहिए। आवश्यकतानुसार बच्चे की रुचि के अनुसार पढ़ाने की पद्धति का चयन करना चाहिए।
  • जिज्ञासा की सन्तुष्टि (Satisfaction of Curiosity)- बचपन में पढ़ाने का तरीका रोचक और गतिविधि एवं खेल के सिद्धांत पर आधारित होना चाहिए। आवश्यकतानुसार बच्चे की रुचि के अनुसार पढ़ाने की पद्धति का चयन करना चाहिए।
  • सामूहिक प्रवृत्ति की तुष्टि (Satisfaction of Gregariousness) – बच्चे में समूह में रहने की प्रबल प्रवृत्ति होती है, वह अन्य बच्चों के साथ घुलना-मिलना और उनके साथ काम करना या खेलना पसंद करता है। उसे ये सभी कार्य करने का अवसर देने के लिए विद्यालय में समूह गतिविधियों एवं समूह खेलों का उचित आयोजन करना चाहिए। कोलेस्निक ने कहा है – “सामूहिक खेल और शारीरिक व्यायाम प्राथमिक विद्यालय के पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग होना चाहिए।”
  • पाठ्य सहगामी क्रियाएँ (Co-curricular Activities) – बालक की मानसिक एवं सामाजिक शक्तियों के विकास के लिए विद्यालय में प्रकृति अवलोकन, भ्रमण, सांस्कृतिक कार्यक्रम, उत्सव, प्रदर्शनियाँ, खेल एवं सामाजिक सेवा कार्यक्रम आयोजित किये जाने चाहिए। इनसे बच्चे की अंतर्निहित शक्तियों का विकास होता है।
  • सामाजिक गुणों का विकास (Development of Social Qualities) – इस अवस्था में बच्चा अपने घर से बाहर, स्कूल और पड़ोस में बातचीत करता है। वह इस नए माहौल में खुद को ढालने की कोशिश करता है। इस अवस्था में प्रतिस्पर्धा, प्रतिस्पर्धा, संघर्ष, सहयोग, सहनशीलता, सह-अस्तित्व आदि का बच्चों के सामाजिक विकास पर बहुत प्रभाव पड़ता है। शिक्षा का उद्देश्य सामाजिक गुणों का विकास है, सामाजिक गुणों के विकास के लिए पाठ्य सहगामी गतिविधियाँ आयोजित की जानी चाहिए। विभिन्न खेलों, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक आयोजनों, सामाजिक सेवा कार्यों आदि के माध्यम से बच्चों में नेतृत्व गुण, सहयोग की भावना, सहनशीलता की भावना, मित्रता आदि का विकास किया जा सकता है।
  • नैतिक शिक्षा (Moral Education) – पियाजे ने अपने अध्ययन के आधार पर कहा है कि लगभग 8 वर्ष की आयु में बच्चा अपने नैतिक मूल्यों तथा समाज के नैतिक नियमों का निर्माण करने लगता है तथा समाज के नैतिक नियमों में विश्वास करने लगता है। वह इन मूल्यों और नियमों के उचित निरूपण में विश्वास करने लगता है।
  • मानसिक विकास पर बल (Emphasis on Mental Development) – मानसिक विकास से तात्पर्य समझने, तर्क करने, सोचने, समस्या सुलझाने, वैचारिक ज्ञान, स्मृति, कल्पना आदि की शक्तियों से है। इस स्तर पर बच्चों को बहुत समृद्ध और रचनात्मक वातावरण प्रदान किया जाना चाहिए। खेल-खिलौनों की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए। बौद्धिक गतिविधियों में विद्यार्थियों की भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए। किसी को घर और स्कूल दोनों जगह समस्याओं को हल करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, इस प्रकार तार्किक गतिविधियों में भाग लेने के अवसर प्रदान किए जाने चाहिए।
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बाल्यावस्था में शिक्षा के लाभ

बाल्यावस्था में शिक्षा के अनेक लाभ होते हैं। पहले तो यह बच्चे को अच्छे विचारों, सोचने की क्षमता और समस्याओं को हल करने की क्षमता प्रदान करती है। यह उन्हें स्वतंत्रता के साथ निर्णय लेने की क्षमता देती है और उन्हें अपने लक्ष्यों की ओर आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है।

दूसरे, बाल्यावस्था में शिक्षा बच्चे के सामाजिक और भाषाई विकास को बढ़ाती है। यह उन्हें सही संबंध बनाने, सहयोग करने और समानता के साथ अन्य लोगों के साथ व्यवहार करने की क्षमता प्रदान करती है।

बाल्यावस्था में शिक्षा के उदाहरण

बाल्यावस्था में शिक्षा के उदाहरणों में खेल-कूद, गाना-नृत्य, कहानियाँ सुनना, रंगमंच कार्यक्रम और खेलों के माध्यम से ज्ञान और सीख देना शामिल होता है। इन गतिविधियों से बच्चे को नई बातें सीखने का मौका मिलता है और उनका मनोयोग विकसित होता है।

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इसके अलावा, बाल्यावस्था में शिक्षा के उदाहरणों में बच्चों को सामाजिक ज्ञान, नैतिक मूल्यों की सीख, अनुशासन, स्वच्छता के महत्व, स्वास्थ्य और हाइजीन के बारे में जागरूकता दी जाती है।

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