एक जटिलतम सम्प्रत्यय बहुभाषिकता को समझने के लिए भाषा के इस जटिल पक्ष की ओर ध्यान आकर्षित करना जरूरी था। यहाँ जटिल का अर्थ कठिन य दुरूह ही सिर्फ नहीं समझना है। साधारण अर्थों में आप उलझा हुआ भी समझ सकते है पर यह याद रहे कि उलझा हुआ हमेशा बेतरतीब ही नहीं होता है। बहुभाषिकता के ताने- बाने की तुलना एक बहुरंगी व बहुतंतुनुमा (multicolored & multi- fabric) वस्त्र से की जा सकती है। एक मिश्रित रंगों व मिश्रित तंतुओं की बारीक बनावट जैसे जटिल वह उलझी हुई सी होती है वैसे ही बहुभाषिकता का परिदृश्य है। बहुभाषिकता हमारे देश का एक प्राचीनतम यथार्थ है। एक कहावत भी आपने सुनी ही होगी “कोस कोस पर बदले पानी और चार कोस पर बानी” कहने का भाव यह है कि हमारे देश में प्रत्येक 1 कोस (लगभग 3 किमी) पर पानी बदल जाता है और प्रत्येक चार कोस पर बानी या बोली बदल जाती है।
बचपन में मैंने यह कहावत जब सुनी थी तब मेरा बाल-मन इस कहावत का मन ही मन विरोध कर बैठा था। इसका कारण सीधा सा था कि मेरे गांव से मात्र एक किलोमीटर की दूरी पर छोटे से गांव में बोली जाने वाली बोली और मेरे गांव की बोली में काफी अंतर था। शिक्षा व्यवस्था द्वारा मानक खड़ीबोली-हिंदी को बढ़ावा देने के बावजूद आज लगभग दो दशकों के बाद भी दोनों गांव की बोली में अंतर देखा जा सकता है। इस उदाहरण का निहितार्थ पुरानी कहावत को अस्वीकार करना नहीं है अपितु बहुभाषिकता की व्यापकता को सामने लाने की एक कोशिश मात्र है। हम शिक्षकों को ऐसे बहुभाषी समुदाय की सेवा करनी होती है और जब हम विद्यालय द्वारा निर्धारित भाषा का ही प्रयोग करते हैं तो कहीं ना कहीं भाषाई अल्पसंख्यक लोगों के प्रति अन्याय हो ही जाता हैं। यह दोनों गांवों, जिनका उदाहरण यहाँ दिया गया है, के लिए आज भी एक ही विद्यालय है और उस समय भी इसी विद्यालय में सभी बच्चे पढ़ने जाते थे। जब कभी वह बच्चे अपने गांव की बोली में जवाब देते थे तो शिक्षक उनको डांटते भी थे और अन्य छात्र उनके विशेष तरीके से बात करने पर हंसते भी थे जबकि शब्दों का अंतर नहीं था सिर्फ शब्द-स्वरूप, और लहजे (Tone) का अंतर था। एक लम्बे समय तक उस गाँव की शिक्षा का स्तर संतोषजनक नहीं रहा है। जिसके अनेक कारणों में से भाषा-भेद, और भाषा के आधार पर भेद-भाव व पूर्वाग्रह रहे है। लेकिन आज हम सभी भाषाओं और बोलियों के प्रति सहिष्णु होने लगे है।
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उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश को खासतौर पर हिंदी भाषी राज्य माना जाता है। हिंदी भाषी राज्यों में भी विशुद्ध हिंदी भाषी कहा जाता है। यह सत्य अन्य राज्यों, विशेष रूप से दक्षिण भारतीय व उत्तर पूर्वी राज्यों के लोगों, का सत्य कहा जा सकता है। बाहर से ऐसा ही दिखाई देता है। हम भी तो मिज़ो, नागा, त्रिपुरी, मणिपुरी आदि व्यक्तियों में ही अंतर नहीं कर पाते है, तो भाषा तो बहुत दूर की बात है। लेकिन उत्तराखंड के वासी होने के नाते आप यहाँ की भाषा तथा भाषाई पारिस्थितिकी (Language Ecology) को अच्छे से समझ सकते हैं। मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि गढ़वाली और कुमाऊंनी को मिलाकर उत्तराखंड में लगभग 15 भाषाएं (Dialects) प्रयोग की जाती है (Dialects of Uttarakhand, n.d.)I जबकि प्रशासकीय भाषा का दर्जा हिंदी व संस्कृत को प्राप्त है। यही स्थिति उत्तर प्रदेश की भी है।
प्रशासकीय भाषा (official Language) का दर्जा उर्दू व हिंदी को प्राप्त है जबकि बहुत बड़े पूर्वी भाग पर भोजपुरी का बोलबाला है। जो भारत में हिंदी का हिस्सा मानी जाती है परंतु सिर्फ मानक हिंदी को सुनने की आदत वाले कानों के लिए लगभग समझ के बाहर की बात है। भोजपुरी, बुंदेलखंडी, अवधी, ब्रज, सभी को हिंदी की उपभाषाओं के रूप में मान्यता प्राप्त है। यदि भाषाओं के आधार पर राज्यों के गठन की स्थापना जारी रही तो भविष्य में ये भाषायी क्षेत्र अलग राज्य भी हो सकते है। सीतापुर, कानपुर, लखनऊ, कन्नौज आदि अनेक जिलों की भाषा के आधार पर कोई अलग पहचान नहीं है फिर बहुभाषिकता के लक्षण विद्यमान है।
एक उदाहरण से हम समझने की कोशिश करते है जो कि एक सत्य घटना पर आधारित है। सन् 2015 में कानपुर जिले के रहने वाले एक शिक्षक सीतापुर जिले के प्राथमिक विद्यालय में नियुक्ति प्राप्त करते हैं। एक दिन शिक्षक ने विद्यार्थी से पूछा कि तुम्हारी पुस्तक कहाँ है? विद्यार्थी ने उत्तर दिया ‘बह गयी। शिक्षक ने आश्चर्यचकित होकर पूछा कि क्या तुम्हारे गांव में बारिश के समय पर बाढ़ आई थी? शिक्षक ने यह प्रश्न बड़ा उत्सुक होकर किया और उस पर कुछ बच्चे हंसने भी लगे क्योंकि उस गांव में बाढ़ की कोई संभावना नहीं थी। बात इतनी सी है कि उस क्षेत्र में ‘बहने का अर्थ खोने से होता है। बच्चे का जवाब था कि पुस्तक खो गई है। जो कि थोड़ी दूरी पर बैठे स्थानीय शिक्षक ने संवाद को बीच में रोकते हुए बताया था। कहने का तात्पर्य है कि एक ही भाषा क्षेत्र में सिर्फ बोलने की शैली व लहजे का ही अंतर नहीं है बल्कि शब्दों के अर्थ भी अलग-अलग हैं। इसे अंतःभाषाई (intra-lingual) विभिन्नता कहते हैं।
अतः हम देख सकते हैं की अंतर-भाषाई (Inter-lingual) विभिन्नता के साथ-साथ अंतः भाषाई विभिन्नता भी व्याप्त है। यह एक सूक्ष्मतर स्तर का अंतर है, जो कि शिक्षक से संवेदनशीलता की मांग करता है। यहाँ शिक्षकों से विद्यार्थियों की सभी विभिन्न भाषाओं को सीखने की अपेक्षा नहीं रखी जा रही है पर शिक्षक सभी भाषाओं को उचित महत्त्व देते हुए बहुभाषिकता के लिए एक सही माहौल बना ही सकते है। विद्यालय में शैक्षिक अंतर्क्रिया के लिए हम सिर्फ एक भाषा के ऊपर निर्भर नहीं रह सकते है। नवीनतम विचारधारा के अनुसार शिक्षकों के प्रश्न की भाषा और विद्यार्थियों के उत्तर की भाषा में भी अन्तर हो सकता है। इस भाषा परिवर्तन के उपागम य पद्धति को पराभाषिक-शिक्षणशास्त्र (Translanguaging Pedagogy) की उपाधि दी गई है। यह एक नया तरीका है जिसमें शिक्षक विद्यार्थी को वह भाषा प्रयोग करने देता है जिसे वह सबसे अधिक और अच्छे से जानता है। कोई एकभाषी शिक्षक भी पराभाषिक प्रणाली का अनुगमन कर सकता है (Grosjean, 2016). यह विचाधारा कक्षा शिक्षण में भाषा उदारता और किसी एक माध्यम-भाषा पर निर्भरता से मुक्ति में विश्वास करती है।
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हम शिक्षक सांस्कृतिक संरक्षण की बात तो करते है पर भाषाई संरक्षण पर तनिक भी ध्यान नहीं रखते। इसके विपरीत देखने को मिलता है कि कुछ तथाकथित अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में विद्यार्थियों द्वारा मातृभाषा के प्रयोग किए जाने पर अर्थदण्ड भी दिया जाता है। कही न कही यह बच्चों के प्रति, उनकी मातृभाषाओं के प्रति समाज के प्रति एक अपराध ही कहा जायेगा। यदि कोई शिक्षक थोड़ा भी चिंतनशील प्राणी है तो वह जान सकता है कि सांस्कृतिक संरक्षण भाषायी संरक्षण से ही प्रारम्भ होता है। जब हमारा देश बहुसांस्कृतिक देश है तब भाषाई विभिन्नता तो होगी ही। किसी एक के होने से दूसरा स्वाभाविक है। द्विभाषिकता और बहुभाषिकता अपने आप में बहुसांस्कृतिकता को आलिप्त करती है अर्थात बहुभाषावाद में बहुसंस्कृतिवाद निहित है। पुनः आप यह बात चक्रीय सम्बंध द्वारा समझ सकते हैं (चित्र 1) कि एक संस्कृति किसी भाषा को जन्म देती है, पल्लवित करती है और प्रतिफल स्वरूप वही भाषा संस्कृति को पहचान देती है, संवर्धन और उसका वर्धन करती है। अतः भाषा और संस्कृति एक दूसरे पर अन्योन्याश्रित है। और यह चक्र सततरूप से गतिशील रहता है।