पाठ्य सहायक क्रियाएँ | Co-curricular Activities (B.Ed) Notes

पाठ्य सहायक क्रियाएँ (CO-CURRICULAR ACTIVITIES)

शैक्षणिक संस्थान छात्रों की बेहतरी के लिए मौजूद हैं। शिक्षा पद्धति विद्यार्थी की व्यवहार योजना को सुधारने में सहायक होती है। स्कूल छात्रों के समग्र विकास पर जोर देता है। कठिन विषयों का अध्ययन जैसी शैक्षिक गतिविधियाँ छात्रों के मानसिक विकास में मदद करती हैं। इसके साथ ही संस्थाओं की कई अन्य गतिविधियां भी चलती रहती हैं। कभी-कभी छात्र स्कूल अधिकारियों की देखरेख में जानबूझकर भाग लेते हैं, लेकिन कभी-कभी वे बिना ध्यान दिए और ज्यादा समझे भी भाग लेते हैं। आगे चलकर उन्हें इनसे बहुत लाभ मिलता है। उदाहरण के लिए, छात्र सुबह की प्रार्थना सभा में भाग लेते हैं जिसमें कुछ छात्रों को किसी विशेष अवसर पर एक विचार प्रस्तुत करने, उस दिन की खबरें बताने के लिए एक संक्षिप्त भाषण देने के लिए कहा जाता है। ऐसे में विद्यार्थी भाषण कला का प्रशिक्षण प्राप्त कर पाते हैं। वे सीखते हैं कि दर्शकों का सामना कैसे करना है। इसी तरह हर संस्था में और भी कई तरह की गतिविधियां चलती रहती हैं. इसमें शिक्षार्थी भाग ले सकते हैं और भविष्य में अच्छे इंसान बन सकते हैं। अत: उनके व्यक्तित्व का विकास होने के साथ-साथ वे अच्छे इंसान बनते हैं। इन्हें स्वयं अपनी शिक्षा और व्यक्तित्व पर गर्व होता है।

Co-curricular Activities - Sarkari DiARY

छात्र गतिविधियाँ: विद्यालय की सभी प्रकार की गतिविधियाँ छात्रों के कल्याण के लिए होती हैं और किसी भी संस्थान में जो भी गतिविधियाँ चलती हैं, उनका उद्देश्य छात्रों का कल्याण होता है। इसीलिए इन गतिविधियों को ‘छात्र कल्याण गतिविधियाँ’ कहा जा सकता है। क्या हम कहेंगे कि खेल, भाषण प्रतियोगिताएं, नृत्य प्रतियोगिताएं, तात्कालिक ड्राइंग प्रतियोगिताएं या समूह पीटी आदि अतिरिक्त गतिविधियां हैं और इनका छात्र की पढ़ाई से कोई संबंध नहीं है। लेकिन ऐसा कहना ठीक नहीं है. आज के स्कूल का पाठ्यक्रम प्राचीन काल से बिल्कुल अलग है। पहले किसी भी संस्था की स्थापना के पीछे मुख्य उद्देश्य शिक्षा होता था और शिक्षा से उनका तात्पर्य केवल पढ़ाना, लिखना और विद्यार्थियों को गणना के हल किये हुए नियम बताना होता था। इसे महत्वपूर्ण माना गया और इन उपरोक्त तीन गतिविधियों के अलावा और कुछ नहीं था। इसलिए, उपयुक्त सहायक गतिविधियों को अनावश्यक माना गया, जिनमें भागीदारी छात्र की इच्छा पर निर्भर थी। साथ ही पढ़ाई के समय के बाद ऐसी गतिविधियां करने को कहा गया. अतः पाठ्यक्रम में इन बेकार गतिविधियों के लिए कोई स्थान नहीं था।

परिवर्तित धारणा (Changing Concept) – कोई बात जिसका उनसे कोई सम्बन्ध नहीं होता था को विचलन माना जाता था। परन्तु अब समय बदल चुका है। आज की शिक्षा केवल मात्र तीन क्रियाओं तक ही सीमित नहीं है। इनका उद्देश्य विद्यार्थी का समूचा विकास करना है। आजकल कोई भी क्रिया जो स्कूल की पढ़ाई के समय में या बाद में होती है, स्कूल की क्रियाओं में शामिल होती है। इन क्रियाओं में से किसी को भी फालतूक्रिया नहीं समझा जा सकता बल्कि ये सब पाठ्यक्रम के अभिन्न अंग माने जाते हैं।

हम पाठ्यक्रम सम्बन्धी किसी भी क्रिया या स्कूल की और किसी क्रिया जिसे पहले अतिरिक्त समझा जाता था के बीच अन्तर मुश्किल से कर सकते हैं। इन दोनों किस्म की क्रियाएँ अब एक-दूसरे की पूरक मानी जाती हैं।

सुल्तान मोइऊद्दीन के शब्दों में, इन क्रियाओं को अब केवल अतिरिक्त नहीं मानते बल्कि वे स्कूल के कार्यक्रम का अटूट अंग हैं।”

आधुनिक शिक्षा व्यवहार में पाठ्यक्रम तथा बाहरी अतिरिक्त क्रियाओं में अन्तर धीरे-धीरे लोप हो रहा है। विद्यार्थियों के समूचे बौद्धिक, सामाजिक, नैतिक एवं शारीरिक अनुभवों की एकरसता के लिए एवं इनका आपसी तालमेल स्कूल के लगातार संघर्षों का उद्देश्य बन गया है। अतः इनको आजकल पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया गया है।

पाठ्यक्रम की सहायक क्रियाएँ बहुत स्वाभाविक तौर से विद्यालय के समतल कार्य करने में सहायता देती हैं। ये बच्चों को शक्तिशाली व पुष्ट बनाती हैं। सुचारू एवं सम्पूर्ण विकास में सहायक होती हैं। रॉस के शब्दों में, “शिक्षा की सम्पूर्णता के लिये सीधे अर्थों में अनुभव करने की शिक्षा विधि है। स्कूल के भाईचारे का स्वरूप मानने का संकल्प या इनको एक अविकसित अथवा भ्रूण रूपी समाज समझने का संकल्प, जिसमें लोग आधुनिक शिक्षा, जिन्दगी जीने का रूप सीखते हैं-ये कुछ ऐसे आदर्श है जिनकी प्राप्ति के लिए प्रतिदिन अधिकाधिक बल दिया जा रहा है कि विद्यार्थियों के स्वभाव, मनमर्जी की क्रियाओं को रूप दिया जाए।

बच्चे की गुप्त शक्तियों को जगाने के लिए अलग-अलग प्रकार की क्रियाओं को औजारों के रूप में प्रयुक्त करते हैं। अपनी इच्छानुसार उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अध्यापक एवं विद्यार्थी दोनों को, इन क्रियाओं पर आधारित होना पड़ता है। इसका अर्थ यह नहीं कि हम स्कूल के पाठ्यक्रम में केवल इन्ही क्रियाओं को बढ़ावा दें। विचार करने योग्य बात यह है कि इन्हें भी पाठ्यक्रम में रखा जाए एवं इनके महत्व को समझा जाए तथा योग्य मान्यता दी जाए।

सैकेण्डरी शिक्षा कमीशन ने इनके चुनाव के विषय में कहा है-ये स्कूल की क्रियाओं का उसी तरह अभिन्न अंग हैं क्योंकि उनका पाठ्यक्रम सम्बन्धी कार्य एवं योग्य संगठन के लिये ही विशेष सावधानी एवं पूर्व सोचने की जरूरत होती है। इस प्रकार की क्रियाएँ स्वाभाविक एवं सीमित होगी। ये भिन्न-भिन्न स्कूलों में होंगी जो उनकी स्थिति, स्रोतों पर निर्भर करेगी

माध्यमिक शिक्षा आयोग ने कहा है, स्वच्छ, प्रसन्न तथा सुव्यवस्थित विद्यालय भवन दिये जाने घर हम चाहेंगे कि यदि विद्यालय सम्भव हो तो छात्रों के समस्त उत्तरदायित्व के विकास हेतु, समृद्धशाली व विविध क्रिया-कलाप का नमूना उपलब्ध कराए उसे मनचाही क्रियाओं, व्यवसाय एवं योजनाओं को तैयार करना होगा जो कि भिन्न-भिन्न क्षमता, प्रकृति वाले बच्चों को आकर्षित कर उनकी शक्तियों का ‘प्रदर्शन करें।”

TYPES OF CO-CURRICULAR ACTIVITIES

शारीरिक विकास के लिए क्रियाएँ (Activities for Physical Development)

  • खेले- कमरे में खेले जाने वाले खेल (Indoor Games) और बाहर खेल जाने वाले खेल (Outdoor Games)
  • दौड़ आदि क्रीड़ाएँ (Athletics)
  • सामूहिक व्यायाम (Mass Exercise)
  • कुश्तिया
  • तैराकी
  • योग
  • नौका चलाना (Boating)

शैक्षणिक क्रियाएँ (Activities of Academic Type)

  • स्कूल पत्रिका।
  • दीवार पत्रिका (Wall Magazine) |
  • वाद-विवाद एवं भाषण प्रतियोगिताएँ।
  • कविता पाठ।
  • प्रतियोगिताएँ-निबन्ध, कहानी आदि।
  • साहित्य-गठन।
  • पुस्तकालय गठन ।
  • नाटक।
  • गोष्ठी।
  • विस्तारभाषण (Extension Lectures)

नागरिकता प्रशिक्षण क्रियाएँ (Civic Training Activities)

  • विद्यार्थी सहकारी स्टोर का गठन
  • विद्यार्थी परिषद् का गठन
  • सहकारी बैंक का गठन
  • नागरिक संस्थाओं जैसे नगरपालिका, डाकखाना, ग्राम पंचायत, जिला परिषद्, विधान सभा, उच्च न्यायालय आदि देखने जाना ।
  • राष्ट्रीय एवं धार्मिक उत्सव मनाना।
  • स्कूल समारोह जैसे वार्षिक पारितोषिक वितरण समारोह, विदाई समारोह आदि मनाना।

सौन्दर्यात्मक एवं सांस्कृतिक विकास सम्बन्धी क्रियाएँ (Activities for Aesthetic and Cultura Development)

  • संगीत और नृत्य चित्र कला
  • फैन्सी ड्रेस (Fancy Dress)
  • विविधतापूर्वक कार्यक्रम (Variety Programme)
  • लोकगीत
  • प्रदर्शनी
  • सांस्कृतिक उत्सव मनाना
  • स्कूल को सजाना ।

आवश्यक काल की क्रियाएँ (Leisure Time Activities)

  • टिकटे एकत्रित करना
  • सिक्के एकत्रित करना
  • पत्थर एकत्रित करना
  • फोटोग्राफी
  • एलबम बनाना Album Making
  • पत्ते, चित्र आदि एकत्रित करना ।

शिल्प सम्बन्धी क्रियाएँ (Craft Activities)

  • बुनना और कातना
  • सिलाई-कढ़ाई
  • मिट्टी के खिलौने
  • साबुन बनाना।
  • टोकरी बनाना।
  • चमड़े का काम।
  • कार्डबोर्ड का काम।
  • जिल्दें बाँधना।

सामुदायिक क्रियाएँ (Community Activities)

  • समूह-प्रार्थना (Mass Prayer)
  • स्काउटिंग (Scouting)
  • गर्ल गाइड (Girl Guide)
  • (रैड-क्रॉस (Red Cross)
  • एन. एस. एस. (N.S.S.)
  • ग्राम सर्वेक्षण (Village Survey)
  • विशिष्ट अवसरों, जैसे मेले आदि पर समाज-सेवा इत्यादि

भ्रमण सम्बन्धी क्रियाएँ (Excursion Activities)

  • पिकनिक (Picnic)
  • यात्राएँ
  • ऐतिहासिक स्थानों की यात्रा
  • चिड़िया घर संग्रहालय, प्रदर्शनी आदि देखना।

विद्यालयों की भिन्न-भिन्न पाठ्य-पुस्तक क्रियाओं की वर्तमान स्थिति आजकल स्कूलों में क्रियाओं की हालत बहुत दयनीय है। बहुत से स्कूल केवल परीक्षाओं की खातिर पूरा वर्ष पढ़ाई कराते हैं। वे इन सहायक क्रियाओं को कोई महत्व नहीं देते। अगर कोई स्कूल में क्रियाएँ चला रहे हैं तो केवल कागजी कार्यवाही के लिये उनकी तरफ कोई ध्यान नहीं देते। बहुत कम स्कूलों में इनकी तरफ पूरा ध्यान दिया जाता है। बहुत से स्कूल केवल वार्षिक उत्सवों के समय या जिला टूर्नामैन्ट के समय इनकी तरफ ध्यान देते हैं। इसका कारण यह है कि इन क्रियाओं का प्रशासन ठीक तरह से नहीं किया जाता है।

विद्यार्थियों में रुचि की कमी

यह भी देखने में आया है कि विद्यार्थी इन क्रियाओं में रुचि नहीं रखते। इसके कारण इस प्रकार है-

  • बहुत कम संख्या में क्रियाओं का प्रबन्ध किया जाता है। उनमें से भी कई ऐसी होती है जो विद्यार्थी की जरूरतों का ध्यान नहीं रखतीं।
  • धनराशि की कमी के कारण स्कूल ज्यादा क्रियाओं का प्रबन्ध नहीं कर सकते।
  • ये क्रियाएँ आमतौर पर स्कूल टाइम के बाद रखी जाती है। इसीलिये विद्यार्थी इनमें भाग लेने कतराते हैं।
  • अध्यापक जो किसी क्रिया की देख-रेख करता है, परन्तु उसमें रुचि नहीं रखता तो वह विद्यार्थियों में क्या रुचि उत्पन्न करेगा।
  • आमतौर पर ये क्रियाएँ किसी अच्छी व्यवस्था के बिना ही शुरू कर दी जाती हैं जिससे सभी क्रियाएँ आपस में उलझ कर रह जाती हैं।
  • कई पर खर्च इतना ज्यादा होता है कि विद्यार्थी सहन नहीं कर पाते। (vii) कई बार विद्यार्थी कार्य में इतने दबे होते हैं कि वे इनमें भाग ही नहीं ले पाते।
  • अध्यापकों में रुचि की कमी

अध्यापकों की ओर रुचि का अभाव (Lack of Interest on the part of the teachers) –

प्रत्येक पाठ्य सहायक क्रिया में पर्याप्त समय लगाना पड़ता है। क्रिया के इन्चार्ज अध्यापक को इस अतिरिक्त काम के लिए कोई भत्ता नहीं मिलता जबकि दूसरे देशों में इन क्रियाओं का गठन करने वालों को भत्ता मिलता है। हमारे देश में भी इस प्रकार का नियम होना चाहिए। फिर इन क्रियाओं का उद्देश्य गठन हो सकता है-

  • अध्यापकों को अतिरिक्त कार्यों के लिए अतिरिक्त भत्ता नहीं दिया जाता।
  • पाठ्य अतिरिक्त क्रियाओं में भाग लेने के कारण उनके कार्य-भार में कमी नहीं की जाती।
  • कई अध्यापकों पर पहले ही काम का बोझ ज्यादा होता है। फिर भी अधिकारी उन्हीं को ये क्रियाएँ सौंप देते हैं।
  • कई बार ऐसे अध्यापकों को क्रियाओं का इन्चार्ज बना दिया जाता है जिन्हें सम्बन्धित क्रिया में। जरा भी रुचि नहीं होती।
  • प्रत्येक अध्यापक के काम का परीक्षण उसके परीक्षा-परिणामों के आधार पर किया जाता है।। पाठ्य सहायक क्रियाओं को कोई महत्व नहीं दिया जाता। परिणामस्वरूप विद्यार्थी शिक्षण की ओर अधिक ध्यान देते हैं, परन्तु और क्रियाओं की ओर कोई ध्यान नहीं देते।
  • कई अध्यापक रूढ़िवादी होते हैं। वे रूढ़ियों के अनुसार काम करते रहते हैं। वे कोई नया प्रयोग करने के लिए तैयार नहीं होते। यह अच्छी बात नहीं कि स्कूल में क्रियाओं की व्यवस्था तो हो परन्तु अध्यापक और विद्यार्थी उसमें रुचि न लें।

क्रियाओं के लिये उचित वातावरण पैदा करने के प्रयास किये जाने चाहिए ताकि अध्यापक और विद्यार्थी दोनों बढ़-चढ़ कर उनमें भाग ले सकें। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित सुझाव विचारणीय हैं-

  • पाठ्य-पुस्तक क्रियाओं को भी उतना ही महत्त्व दिया जाना चाहिए जितना पढ़ाई को दिया जाता है। इन क्रियाओं में विशिष्टता प्राप्त करने वाले विद्यार्थी को भी उतना ही श्रेय मिलना चाहिए जितना पढ़ाई में विशिष्टता प्राप्त करने वाले विद्यार्थी को दिया जाता है।
  • क्रियाओं के इंचार्ज अध्यापकों को कुछ-न-कुछ भत्ता दिया जाना चाहिए। यदि ऐसा मदद न हो सके तो उनका शिक्षण कार्य कम किया जाना चाहिए। इससे वे अध्यापक इन क्रियाओं की ओर आकर्षित होंगे जिनकी इनमें रुचि है।
  • क्रियाओं का संचालन स्कूल समय में होना चाहिए इससे विद्यार्थियों तथा अध्यापको को अतिरिक्त बोझ महसूस नहीं होता।
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