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स्त्री आन्दोलन | Women Movement B.Ed Notes by Sarkari Diary

Published by: Ravi Kumar
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प्राचीनकाल में भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का आदर्श नारी को माना जाता था। कहावत थी. जहाँ नारी का सम्मान होता है वहाँ देवताओं का निवास स्थान होता है। महिलाओं का सम्मान करना प्रत्येक पुरुष का कर्त्तव्य माना जाता था। नारियों को उच्च शिक्षा देकर समाज की उन्नति व प्रगति के नींव रखी जाती थी। बाद में भारतीय सभ्यता व संस्कृति में विदेशी सभ्यता व संस्कृति का आमेलन होने से नारी की।

स्त्री आन्दोलन | Women Movement B.Ed Notes by Sarkari Diary

दशा में गिरावट आनी प्रारम्भ हो गयी। मुसलमान आक्रमणकारियों से नारी की लज्जा को बचाने के लिए पर्दा-प्रथा आरम्भ हो गयी जिसने नारी की दशा को पहले से भी दीन-हीन बना दिया। इसके साथ ही भारत में समाज को कलंकित करने वाली सती प्रथा ने नारी के जीवन को दुखित बना दिया व सती प्रथा शुरू हो गयी। इन सब बुराइयों से दूर करने हेतु स्त्री की दशा सुधारने हेतु बहुत से समाज सुधारकों ने अपना योगदान दिया।

भारत में स्त्री आन्दोलन के इतिहास को तीन चरणों में बाँटा जा सकता है-

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पहला चरण उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य शुरू हुआ जब यूरोपीय पुरुष क्रान्तिकारियों ने सती प्रथा की बुराइयों के विरुद्ध बोलना शुरु किया। बाद में इस प्रथा को राजा राममोहन राय ने लार्ड विलियम बैंटिक के सहयोग से समाप्त कराया व 14 दिसम्बर 1829 ई. में सती प्रथा को दण्डनीय अपराध घोषित कर इस कुप्रथा का अन्त किया

भारत में प्रचलित बाल विवाह के कारण छोटी आयु में ही पति के मरने पर बच्चियाँ बाल विधवा बल जाती थी व उनका जीवन नारकीय हो जाता है। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने विधवा पुनर्विवाह के लिए आन्दोलन किया व उन्हीं के प्रयासों से 1856 में विधवा पुनर्विवाह कानूनी रूप में मान्य कर दिया गया।

महिला सुधार आन्दोलन का दूसरा चरण 1915 से शुरू होता है जब गाँधीजी ने भारत छोड़ो आन्दोलन में स्त्रियों का सहयोग लिया और इसमें स्वतन्त्र महिला संगठनों का उदय हुआ। इसी समय भारतीय समाज में बाल विवाह की कुप्रथा को रोकने के लिए समाज सुधारकों ने अनेक आन्दोलन चलाये। सरकार ने 1931 ई. में दि इन्फेंट मैरिज प्रीवेंशन एक्ट (The Infants Marriage Prevention Act) पारित करके इस कुप्रथा पर रोक लगा दी। इसी बाल विवाह को गैर-कानूनी बनाने के लिए सबसे प्रभावी कदम 1929 में शारदा एक्ट पारित करके उठाया गया। इस एक्ट के अनुसार 18 वर्ष से कम आयु के लड़के व 21 वर्ष से कम आयु की लड़की का विवाह काना गैर कानूनी घोषित कर दिया गया।

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स्त्री आन्दोलन का तीसरा चरण स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद शुरू हुआ जिसमें विवाह पश्चात् घर में महिला से सम्मानजनक व्यवहार करने की माँग की गयी क्योंकि नारी की दशा सुधार कर उसे समाज में सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए नारी जाग्रत होना नितान्त आवश्यक था। यह कार्य नारी शिक्षा को बढ़ावा देकर भली प्रकार किया जा सकता था। शिक्षित नारी स्वयं जाग्रत होकर पर्दा प्रथा, दहेज प्रथा, बाल विवाह तथा बहुविवाह जैसी कुरीतियों का विरोध करके अपनी स्थिति को सुदृढ़ बना सकती थी। भारतीय महिला एसोसिएशन महिलाओं की राष्ट्रीय कौंसिल अखिल महिला सम्मेलन आदि संस्थानों ने नारी जागृति तथा महिला सशक्तीकरण हेतु अथक प्रयास करके नारी को सम्मानजनक स्थान दिलाया।

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इसी प्रकार भारतीय महिलाओं ने समाज में सम्मानजनक एवं समानता का अधिकार पाने के लिए अनेक आन्दोलन किए। उनकी माँगों को ध्यान में रखकर सरकार ने 1937 ई. में हिन्दू कोड बिल रखा परन्तु वह पारित नहीं हो सका। बाद में इसी के आधार पर सामाजिक अधिनियम पारित किए गये।

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