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शैशवावस्था की प्रमुख विशेषताएँ | Chief Characteristics of Infancy B.Ed Notes

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शैशवावस्था शब्द का अर्थ होता है बचपन की वो अवस्था, जो जन्म से लेकर दो वर्ष की उम्र तक होती है. इस अवधि में शिशु का बहुत तेजी से विकास होता है, जिसमें शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विकास सभी शामिल हैं।

शैशवावस्था की प्रमुख विशेषताएँ | Chief Characteristics of Infancy B.Ed Notes

शैशवावस्था की शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक तथा सामाजिक विकास से सम्बन्धित प्रमुख विशेषताएँ-

शैशवावस्था की शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक तथा सामाजिक विकास से सम्बन्धित कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

1. शारीरिक विकास में तीव्रता (Rapidity in Physical Growth)- बालक के जीवन में प्रथम तीन वर्षों में शारीरिक विकास तीव्र गति से होता है। प्रथम वर्ष में लम्बाई तथा भार दोनों में तीव्र गति से वृद्धि होती है। आन्तरिक अंगों व माँसपेशियों आदि का भी परस्पर विकास होता है।

2. मानसिक क्रियाओं में तीव्रता (Rapidity in Mental Processes) – शिशु की मानसिक क्रियाओं जैसे- ध्यान, स्मृति, कल्पना, संवेदना, प्रत्यक्षीकरण, कल्पना आदि का विकास तीव्र गति से होता है। तीन वर्ष की आयु तक शिशु की लगभग सब मानसिक शक्तियाँ भली-भाँति कार्य करने लगती हैं।

3. सीखने में तीव्रता (Rapidity in Learning) – शिशु के सीखने की प्रक्रिया में बहुत तीव्रता होती है। वह अनेक आवश्यक बातों को जल्दी सीख लेता है।

4. कल्पना (Imagination) – शिशु की कल्पना शक्ति इतनी प्रबल होती है कि वह बहुत-सी बातों की कल्पना कर लेता है जैसे- लाठी को घोड़ा समझना, पहिए को रेल समझना आदि। दूरदर्शन पर आने वाले कार्यक्रमों के नायकों के एक्शन करने का प्रयास करता है, क्योंकि वह काल्पनिक जगत में पहुँच कर स्वयं को नायक के स्थान पर देखता है इससे कभी-कभी बड़ी दुर्घटनाएँ भी हो जाती हैं।

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5. दोहराने की प्रवृत्ति (Tendency of Repetition) – शैशवावस्था में शिशु में शब्दों, वाक्यों अथवा क्रियाओं को बार-बार दोहराने की प्रवृत्ति विशेष रूप से पाई जाती है। दोहराने में शिशु एक प्रकार के आनन्द का अनुभव करता है।

6. दूसरों पर निर्भरता (Dependence on Others) – मानव शिशु जन्म के बाद कुछ समय तक असहाय अवस्था में रहता है। वह अपनी भौतिक एवं भावनात्मक आवश्यकताओं के लिए अपने माता-पिता एवं परिवार के अन्य सदस्यों पर निर्भर रहता है। खाने, पीने, कपड़े पहनने, बिस्तर पर लेटने आदि सभी कार्यों के लिए वह दूसरों पर निर्भर रहता है। अधिकतर वह अपनी माँ पर निर्भर रहता है। अगर दूसरे बच्चों से झगड़ा होता है तो वह तुरंत इसकी शिकायत अपने माता-पिता से करते हैं। स्नेह, प्रेम, सुरक्षा आदि के लिए अपने माता-पिता या अन्य बड़ों पर निर्भर रहता है।

7. अनुकरण द्वारा सीखने की प्रवृत्ति (Attitude of Learning by Imitation) – शिशु सबसे अधिक और जल्दी अनुकरण विधि से सीखते हैं। परिवार में माता-पिता, भाई-बहिनों तथा अन्य सदस्य के व्यवहार का वह अनुकरण करता है और सीखता है।

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8. स्वप्रेम की भावना (Feeling of Self Love) – शैशवावस्था में अपने प्रति प्रेम की भावना का बाहुल्य होता है। वह अपने माता-पिता की गोद में किसी अन्य बच्चे को देखकर ईर्ष्या करता है। वह सभी वस्तुएँ, माता-पिता व भाई-बहिनों का सम्पूर्ण स्नेह व लाड़-प्यार अपने लिए ही चाहता है। वह अपनी किसी भी चीज में अन्य बच्चों को साझीदार नहीं बनाना चाहता।

9. नैतिक भावना का अभाव (Lack of Moral Feeling) -इस अवस्था में बालक में नैतिक भावनाएँ जागृत नहीं होती। वह यह जानने में असमर्थ है कि क्या सही है और क्या गलत, क्या अच्छा है और क्या बुरा। वह केवल वही करता है जिसमें उसे आनंद आता है, भले ही वह नैतिक रूप से अवांछनीय हो। वह कभी भी वो काम नहीं करता जिससे उसे दुख पहुंचे। इस प्रकार उसमें नैतिक भावना का सर्वथा अभाव है।

10. सामाजिक भावना का विकास (Development of Social Feeling) – 4-5 महीने का बच्चा दूसरे बच्चों की ओर आकर्षित होता है, जबकि 10-11 महीने का बच्चा गेम खेलने में व्यस्त रहता है, जबकि 11-12 महीने का बच्चा खिलौना छोड़कर दूसरे बच्चों की ओर चला जाता है। शैशवावस्था के अंतिम चरण में बच्चा दूसरे बच्चों की मदद करना शुरू कर देता है। दूसरों के दुःख के प्रति सहानुभूति व्यक्त करता है। दूसरों को चिढ़ाकर अपना मनोरंजन करता है।

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11. प्रत्यक्षात्मक अनुभव द्वारा सीखना (Learning Perceptual Experience) – मानसिक रूप से परिपक्व न होने के कारण वह प्रत्यक्ष और स्थूल वस्तुओं के सहारे सीखता है।

शैशवावस्था के कुछ महत्वपूर्ण चरण

शैशवावस्था एक महत्वपूर्ण अवस्था होती है, जिसमें बच्चे के मस्तिष्क का तेजी से विकास होता है. इस दौरान उन्हें प्यार, देखभाल और उचित पोषण की बहुत आवश्यकता होती है।

  • नवजात शिशु (0-2 महीने): शिशु अपनी इंद्रियों के माध्यम से दुनिया का अनुभव करना शुरू करते हैं। वे रोने, मुस्कुराने और चेहरे के भावों के माध्यम से संवाद करते हैं।
  • शिशु (3-5 महीने): शिशु अपने सिर, गर्दन, और धड़ को नियंत्रित करना सीखते हैं। वे खिलौनों तक पहुंचने और उन्हें पकड़ने में सक्षम होते हैं।
  • शिशु (6-8 महीने): शिशु बैठना, रेंगना और खड़े होना सीखते हैं। वे सरल शब्दों और वाक्यांशों को समझना शुरू करते हैं।
  • शिशु (9-11 महीने): शिशु चलना, बात करना और खुद को खिलाना सीखते हैं। वे अपनी स्वतंत्रता का दावा करना शुरू करते हैं।
  • बच्चा (12-18 महीने): बच्चे अपनी भाषा और सामाजिक कौशल विकसित करना जारी रखते हैं। वे अपनी भावनाओं को व्यक्त करना और अपनी रुचि और प्राथमिकताएं विकसित करना सीखते हैं।

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