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भूमि आन्दोलन | Land Movement B.Ed Notes

Published by: Ravi Kumar
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भारत में अंग्रेजी राज्य का एक प्रमुख अंग भारतीय कृषि व्यवस्था को प्रभावित करना था। नवीन भूधृति (Land tenures) व्यवस्था ने नए प्रकार के भूमिपति उत्पन्न कर दिये थे। जीवनयापन के अन्य साधन कम होने से भी देश में भूमि पर बोझ अधिक बढ़ गया था। सरकारी कर तथा जमींदारों का भाग अधिक होने से कृषक साहूकारों तथा व्यापारियों के चंगुल में फंस गए जिससे कृषक को विदेशी ही नहीं बल्कि स्थानीय पूँजीपतियों से भी संघर्ष करना पड़ा। 19वीं शताब्दी में कृषकों की यह अशान्ति विरोधों, विद्रोहो तथा प्रतिरोधों में प्रकट हुई जिनका मुख्य उद्देश्य सामन्तशा ही बन्धनों को तोड़ना अथवा ढीला करना था।

भूमि आन्दोलन | Land Movement B.Ed Notes

119वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही बार-बार अकाल पड़ने से भूख से लाखो कृषक मर गये। फलस्वरूप भूमि सुधार आन्दोलन का विचार उभरने लगा।

सर्वप्रथम 1855-56 में संथाल विद्रोह हुआ। संथालों ने कम्पनी राज्य की समाप्ति तथा अपने सूबेदार के राज्य के आरम्भ की घोषणा कर दी परन्तु फरवरी 1856 में नेता बंदी बना लिए गए तथा विद्रोह को बहुत कठोरता से दबा दिया गया। परन्तु 1857 के पश्चात् भूमि कर व्यवस्था अवध के तालुकदारों से की और उनकी अधिकतर भूमि उन्हें लौटा दी गई। यही नहीं, इन तालुकदारों की स्थिति और भी सुदृढ़ कर दी गई।

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19वीं शताब्दी के आरम्भ से ही कम्पनी के कुछ अवकाश प्राप्त यूरोपीय अधिकारियों तथा कुछ नए-नए धनियों ने बंगाल तथा बिहार के जमींदारों से भूमि प्राप्त कर ली तथा विस्तृत रूप से नील की खेती करने लगे। ये लोग कृषकों पर बहुत अत्याचार करते थे तथा उन्हें ऐसी शर्तों पर नील उगाने के लिए बाध्य करते थे जो लाभप्रद नहीं थी। अप्रैल 1860 में बारासात उपविभाज तथा यावना और नादिया जिलों के समस्त कृषकों ने भारतीय इतिहास की प्रथम कृषकों की हड़ताल कर दी। उन्होंने नील बोने से मना कर दिया। परन्तु 1860 भी एक नील आयोग की नियुक्ति से भूमिपतियों ने मात खाई।

19वीं शताब्दी के अन्तिम 25 वर्षों में ग्रामीण ऋणग्रस्तता तथा कृषकों की भूमि का अकृषक वर्ग के पास हस्तान्तरण हो जाना आम बात हो गई थी जिसे सरकार पंजाब में दोहराना नहीं चाहती थी अतः इसके विरुद्ध पंजाब भूमि अन्याक्रामण अधिनियम (Land Alienation Act 1900) पास किया गया।

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उसके अनुसार भूमि कर वार्षिक भारक के आधे से अधिक नहीं हो सकता था।

उत्तर प्रदेश के चम्पारन जिले में भी कृषकों ने अहिंसात्मक आन्दोलन चलाया जिससे सरकार ने क्रोधित होकर गाँधीजी को गिरफ्तार कर लिया व जाँच समिति की नियुक्ति कर दी। इसके फलस्वरूप चम्पारन कृषि अधिनियम पारित किया गया जिससे नील उत्पादकों द्वारा विशेष प्राप्ति बंद कर दी गई। केरा (खेड़ा) आन्दोलन तो मुख्यतः बम्बई सरकार के विरुद्ध था। भूमि कर नियमों में यह स्पष्ट होते पर भी कि यदि फसल 25% से कम हो तो भूमि कर में पूर्णता छूट मिलेगी, बम्बई सरकार ने सूखा पड़ने के बावजूद किसानों से भूमि कर मांगा। गाँधीजी ने कृषकों को संगठित कर इसके विरुद्ध आन्दोलन किया और अन्त में सरकार को गाँधीजी की बात माननी पड़ी।

सन 1937 में लोकप्रिय सरकारें बनीं तो कृषकों ने इनसे बहुत आशाएँ रखी परन्तु उन्हें निराशा ही हुई। परन्तु सरकार के बाकाश्त भूमि अधिनियम ( Bakasht Land Act) तथा बिहार गुजारा अधिनियम (Bihar ‘Tenancy Act) के पुनः लागू करने से कृषकों को कुछ राहत मिली। इसी प्रकार हमें स्वतन्त्रता मिलने के पूर्व के 10 वर्षों में भी 3 प्रमुख कृषक आन्दोलन चले-बंगाल का तेभागा आन्दोलन, हैदराबाद दक्कन का तेलंगाना आन्दोलन तथा पश्चिमी भारत में वर्ली विद्रोह। तेलगांना का विद्रोह, जो 1946 से 1951 तक रहा, भी जमींदारों, साहूकारों, व्यापारियों तथ निजाम के अधिकारी वर्ग के वि

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