भाषा के कार्य (FUNCTION OF LANGUAGE)

कक्षाध्यापन क्षेत्र (Coverage of Class teaching)- एक या अनेक विद्यार्थियों को किसी कक्ष से बाहर किसी विषय विशेष के विषय में निर्दिष्ट उद्देश्यों की पूर्ति के लिए शिक्षक द्वारा किसी माध्यम से ज्ञान प्रदान करना या उनसे कोई कार्य कराना कक्षाध्यापन कहलाता है।

बालकों की संख्या के आधार पर कोई कक्षा पर्याप्त छोटी हो सकती है। भवन के बाहर मैदान में लग सकती है एवं भाषा प्रयोगशाला में भी अध्यापन की दृष्टि से शिक्षक बालकों को या तो विषय विशेष के किसी पक्ष का ज्ञान प्रदान करता है या प्रदत्त ज्ञान के आधार पर कोई कार्य करता है।

अध्यापन या शिक्षण शिक्षा प्रदान करने तथा ग्रहण करने की द्विकर्मक क्रिया है, जिसमें शिक्षक तथा शिक्षार्थी दोनों ही क्रियाशील रहते हैं। शिक्षण के मुख्य तीन परस्पर सम्बद्ध पक्ष माने जाते है-

  1. शिक्षक
  2. पाठ्यवस्तु
  3. शिक्षार्थी

ऐसा जॉन डीवी का मानना है।

इस प्रकार शिक्षक, शिक्षार्थी तथा पाठ्यवस्तु, पाठ्यवस्तु के द्वारा सम्पर्क स्थापित करने वाली त्रिभुजीय (Triangle) प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया को पथ-प्रदर्शन की प्रक्रिया भी कहा जाता है जिससे शिक्षार्थी की किसी या जीवन की अपरिपक्वता दूर होती है। शिक्षण के समय शिक्षार्थी को निष्क्रिय श्रोता मानकर उसके मस्तिष्क में किसी विषय के ज्ञान को हँस-हँस कर भर देने की विचारधारा का 20 वीं सदी में अन्त हो चुका है। शिक्षण तभी सफल होता है जबकि शिक्षार्थी उस विषय ज्ञान को ग्रहण करने के लिए सहर्ष तैयार हो। आज शिक्षण का अर्थ है शिक्षार्थी को ऐसे अवसर प्रदान करना जिससे वह अपनी अवस्था तथा प्रवृत्ति के अनुरूप विविध समस्याओं को हल करने की योजना बना सके।

कक्षाध्ययन तथा शिक्षण के तीनों शीर्षो के मध्य उचित सम्पर्क स्थापन के लिए पक्षों का ध्यान रखना आवश्यक है।

शिक्षार्थी के विषय में ज्ञान– शिक्षक को शिक्षार्थी के विषय में सम्पूर्ण जानकारी होनी चाहिए अर्थात् उसे शिक्षार्थी के स्वभाव, प्रकृति की भी जानकारी होनी चाहिए। शिक्षक यह जाने कि उसे किस आयु के छात्रों को कब कहाँ क्यों और किसलिए पढ़ाना है?

पाठ्यवस्तु का ज्ञान- शिक्षार्थी के विषय में पूर्ण ज्ञान रखने के साथ शिक्षक को पाठ्यवस्तु का पूरा-पूरा ज्ञान होना चाहिए। शिक्षक को इस सम्बन्ध में आत्मचिन्तन करना चाहिए कि वह किस विषय को पढ़ाने जा रहा है। उस विषय पर उसका आवश्यक अधिकार है या नहीं।

शिक्षण विधि का ज्ञान- अध्यापन की सफलता पाठ्यवस्तु के उपयुक्त प्रस्तुतीकरण पर निर्भर है।

सीखने की प्रेरणा- शिक्षार्थी के आस-पास के जटिल वातावरण को उसके अनुकूल बनाते हुए उसे सीखने के लिए प्रेरित करने की जिम्मेदारी शिक्षक को निभानी पड़ती है।

इत्यादि

किसी विषय के अध्यापन की सफलता पाठ की तैयारी और उसके प्रस्तुतीकरण के सामंजस्य पर निर्भर है कक्षाध्यापन के लिए जाने से पूर्व अध्यापक को पाठ्यविषय की पर्याप्त श्रम, लगन तथा निष्ठा के साथ पूर्ण तैयारी कर लेने से अध्यापक में आत्मविश्वास, साहस, दृढ़ता और आत्म-सन्तोष उत्पन्न होता है। प्रतिभावान तथा विवेकशील छात्र तो अध्यापक के पाठ् प्रस्तुतीकरण के साथ ही जान जाते हैं कि शिक्षक कितने पानी में है। व्यावहारिक सफलता सूझ-बूझ के साथ व्यवहार करने से ही प्राप्त होती है। अध्यापन के व्यावहारिक पक्ष में इन बातों की गणना की जाती है। कक्षा में शिक्षक के खड़े होने, बैठने, चलने फिरने का ढंग, बोलने प्रश्न पूछने का ढंग तथा उसके हाव-भाव, वेशभूषा दृश्य-श्रव्य उपकरण आदि का प्रयोग करना। इस प्रकार सफल अध्यापन या अच्छे शिक्षण के सम्बन्ध में ये पक्ष/ गुण उभर कर सामने आते हैं-

  • सफल अध्यापन निर्देशात्मक होता है न कि आदेशात्मक। सफल अध्यापक छात्रों को आदेश न देकर सहानुभूति तथा प्रेमपूर्ण व्यवहार करते हुए वातावरण की कठोरता को कम करके उनसे कार्य कराने में समर्थ होता है।
  • सफल अध्यापन सहयोगात्मक होता है न कि एकमार्गीय सफल अध्यापक छात्रों का पूर्ण सहयोग प्राप्त करते हुए अध्यापन या शिक्षण करता है। छात्रों के पूर्ण सहयोग के अभाव में शिक्षण की सफलता संदिग्ध रहती है।
  • सफल शिक्षण सुव्यवस्थित होता है न कि विश्रृंखला सफल शिक्षक सहानुभूतिपूर्ण होता है न कि भय उत्पादक सफल शिक्षक विद्यार्थियों के पाठ के प्रति उत्साहित करने के लिए कक्षा में सहानुभूतिपूर्ण तथा प्रेम का वातावरण बनाए रखता है। कठोर अनुशासन में अध्ययनरत छात्र सदा भयभीत रहने के कारण प्रदत्त ज्ञान को सम्यक रूपेण ग्रहण नहीं कर पाता है।
  • सफल शिक्षक प्रजातन्त्रात्मक होता है न कि भेद-भावकारी सफल शिक्षक कक्षा में सभी शिक्षार्थियों के साथ एक-सा व्यवहार करता है। रंग-रूप, वर्ग, वर्ण, धन और लिंग भेद के आधार पर वह अपने शिक्षार्थियों में भेदभाव नहीं रखता है।
  • सफल शिक्षण शिक्षार्थी के पूर्व ज्ञान पर आधारित तथा उपचारात्मक होता है। सफल शिक्षण शिक्षार्थी के पूर्व ज्ञान के आधार पर उसे नवीन ज्ञान देता है तथा उसकी गलतियों का ज्ञान कराते हुए उनका सुधार भी करता जाता है

इत्यादि

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