भाषा एवं समाज के मध्य सम्बन्ध

भाषा लोगों के बीच अन्तक्रिया का एक माध्यम है। वह बालक का समाजीकरण करती है। उसे समाज में रहने लायक प्राणी बनाती है। मानव चिन्तन की अभिव्यक्ति भी भाषा के द्वारा ही होती है। यह उन सभी लोगों को एकता के सूत्र में बाँधती है, जो एक ही भाषा का प्रयोग करते हैं। भारत में भाषा के साथ-साथ सांस्कृतिक विशेषताओं में भी अन्तर देखने को मिलता है। यहाँ सामाजिक संरचना, शासन वर्ग एवं विशिष्ट परिस्थितियों में परिवर्तन के साथ-साथ भाषा में भी परिवर्तन हुए हैं। अति प्राचीन समय में पालि व प्राकृत भाषाओं का प्रयोग होता था। जैन व बौद्ध धर्म ने भी इन्हीं भाषाओं को अपनाया था। प्राचीन हिन्दू धर्म ग्रन्थों में संस्कृत भाषा का प्रयोग किया गया। प्राचीन व मध्यकाल में जब शासक बदले तो उनकी संस्कृति व राजनीतिक सत्ता के साथ-साथ भाषा में भी परिवर्तन आया। मुसलमानों ने उर्दू. अरबी और पार्सियन भाषाओं का प्रयोग किया। अंग्रेजी शासकों ने अंग्रेजी को राजकाल की भाषा बनाया।

आजादी के बाद हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया। साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं को भी संविधान में स्थान दिया गया। इसमें भारतीय भाषाओं के साहित्यिक भण्डार में वृद्धि हुई है। उनके लोकप्रिय मुहावरों, गीतों, कहानियों, नाटकों आदि का विस्तार हुआ। विभिन्न संस्कृतियों के टकराव के कारण जहाँ एक ओर मिली-जुली संस्कृति का प्रादुर्भाव हुआ, वहीं दूसरी ओर भाषाओं के शब्द भण्डार में वृद्धि हुई। यद्यपि एक भाषा बोलने वाले लोग अपने परिवार, विवाह व जातियों सम्बन्धों को भाषाई क्षेत्र तक ही सीमित रखते हैं, फिर भी वर्तमान में संचार व यातायात के साधनों में वृद्धि से लोगों में उत्पन्न गतिशीलता ने व्यापार, नौकरी और शिक्षा के लिये भाषायी क्षेत्र को छोड़कर अभाषाई क्षेत्र में जाने के अवसर प्रदान किये है। इससे लोगों को अपनी मूलभाषा के अतिरिक्त भाषाओं को सीखने का अवसर भी मिला तथा उस भाषा से सम्बन्धित लोगों की संस्कृति तथा उनसे अन्त क्रिया करने के अवसर उत्पन्न हुये और उनमें मेल-जोल बढ़ा। इस प्रकार से भारत के सामाजिक सम्बन्धों ने भी योगदान दिया।

भाषा द्वारा ही मानव, मानव के रूप में विकसित हो सका है और समाज के साथ सम्बन्ध स्थापित कर सका है। यही कारण है कि भाषा को अर्जित मानव व्यवहार तथा मानवी गुणों का प्रमुख आधार माना गया है यद्यपि भाषा सीखने की क्षमता मनुष्य में जन्मजात होती है, परन्तु भाषा को वंश परम्परागत गुण नहीं माना जाता। मनुष्य का रूप-रंग और अधिकांश मात्रा में उसकी वृद्धिमानी परम्परा द्वारा निर्धारित होती है, परन्तु भाषा के सम्बन्ध में यह नहीं कहा जा सकता। (यद्यपि भाषा की जैविकीय संरचना पर आधारित है) वाक् अवयवों के द्वारा ही भाषा का उच्चारण होता है परन्तु भाषा का स्वरूप, उसके द्वारा निर्धारित नहीं होता।

मनुष्य किसी भी भाषा को सीखने एवं उच्चारित करने की क्षमता रखता है। भाषा का प्रयोग मानव समाज के बीच इतने सहज और स्वाभाविक रूप से होता है कि सामाजिक प्रयोक्ता और श्रोता का ध्यान भाषाई क्रिया पर केन्द्रित न होकर उसके द्वारा अभिव्यक्त तथा केन्द्रित होता है, परन्तु भाषा शिक्षण के संदर्भ में भाषा के स्वरूप से परिचित होना आवश्यक है।

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