शिक्षा के अंग अथवा घटक–
शिक्षा प्रक्रिया के मुख्यत: दो अंग होते हैं- एक सीखने वाला और दूसरा सिखाने वाला। नियोजित शिक्षा में सीखने वाले शिक्षार्थी कहे जाते हैं और सिखाने वाले शिक्षक। नियोजित शिक्षा के तीन अंग और होते हैं- पाठ्यचर्या, पर्यावरण और शिक्षण कला एंव तकनीकी।

शिक्षार्थी –
इसका अर्थ है सीखने वाला। यह शिक्षा प्रक्रिया का सबसे पहला और मुख्यतम अंग होता है। शिक्षार्थी की अनुपस्थिति में शिक्षा की प्रक्रिया चलने का केाई प्रश्न ही नहीं। शिक्षा अपनी रूचि, रूझान और योग्यता के अनुसार ही सीखता है। सीखने की क्रिया शिक्षार्थी के शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य, उसकी अभिवृद्धि, विकास एवं परिपक्वता और सीखने की इच्छा, पूर्व अनुभव, नैतिक गुणों, चरित्र, बल, उत्साह, थकान एवं उसकी अध्ययनशीलता पर निर्भर करती है। अध्यापक सीखने में एक सहायक रूप में कार्य करता है।
शिक्षक-
शिक्षा के व्यापक अर्थ में हम सब एक दूसरे को प्रभावित करते है, सीखते हैं, इसलिये हम सभी शिक्षार्थी और सभी शिक्षक हैं। परन्तु संकुचित अर्थ में कुछ विशेष व्यक्ति, जो जान बूझकर दूसरों को प्रभावित करते हैं और उनके आचार-विचार में परिवर्तन करते हैं, शिक्षक कहे जाते हैं। शिक्षक के बिना नियोजित शिक्षा की कल्पना आज भी सम्भव नहीं है। शिक्षक बालक के विकास में पथ-प्रदर्शक का कार्य करता है।
पाठ्यचर्या-
नियोजित शिक्षा के उद्देश्य निश्चित होते है। इन निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये बच्चों को ज्ञान की विभिन्न शाखाओं अर्थात् विषयों का ज्ञान कराया जाता है, और उन्हें विभिन्न प्रकार की क्रियायें करायी जाती हैं। सामान्यत: इन सबको पाठ्यचर्या कहा जाता है। वास्तविक अर्थ में पाठ्यचर्या और अधिक व्यापक होती है, उनमें विषयों के ज्ञान एवं क्रियाओं के प्रशिक्षण के साथ -साथ वह पूर्ण सामाजिक पर्यावरण भी आता है, जिसके द्वारा यथा उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है।
शिक्षा के प्रकार –
समकालीन शिक्षा विचारक जिद्दू कृष्णमूर्ति के अनुसार- ’’शिक्षा बचपन से ही जीवन की समूची प्रक्रिया को समझने में सहायता करने की क्रिया है।’’ अर्थात् उनके अनुसार शिक्षा का अर्थ समग्र जीवन का विकास, सम्पूर्णता, जीवन का समूचापन। उनका मानना है कि- ‘‘जीवन बड़ा अद्भुत है वह असीम और अगाध है, यह अनन्त रहस्यों को लिये हुये है। यह एक विशाल साम्राज्य है जहां हम मानव कर्म करते हैं और यदि हम अपने आपको केवल आजीविका के लिये तैयार करते हैं तो हम जीवन का पूरा लक्ष्य ही खो देते हैं। कुछ परीक्षायें उत्तीर्ण कर लेने और रसायनशास्त्र अथवा अन्य किसी विषय में प्रवीणता प्राप्त कर लेने की अपेक्षा जीवन को समझना कहीं ज्यादा कठिन है।’’ शिक्षा के अनेक रूप माने जाते हैं हम उनका संक्षिप्त अध्ययन करेंगे-
शिक्षा के घटक, प्रकार एवं महत्व –
व्यवस्था की दृष्टि से शिक्षा के तीन रूप है- औपचारिक, निरौपचारिक और अनौपचारिक।
- औपचारिक शिक्षा-
वह शिक्षा जो विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में दी जाती है, औपचारिक शिक्षा कही जाती है। इसके उद्देश्य, पाठ्यचर्या और शिक्षण विधियां सभी निश्चित होते हैं। यह योजनाबद्ध हेाती है और इसकी योजना बड़ी कठोर होती है। इसमें सीखने वालों को विद्यालय समय सारिणी के अनुसार कार्य करना होता है। यह शिक्षा व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। यह शिक्षा व्यय साध्य होती है। इसे कई स्तरों पर व्यवस्थित किया जाता है प्रत्येक स्तर पर परीक्षा और प्रमाण-पत्र की व्यवस्था की जाती है।
- अनौपचारिक शिक्षा-
वह शिक्षा जिसकी याजे ना नहीं बनायी जाती न ही निश्चित उद्देश्य होते हैं, न पाठ्यचर्या और न शिक्षण विधियॉ और जो आकस्मिक रूप से सदैव चलती रहती हैं उसे अनौपचारिक शिक्षा कहते हैं। इस प्रकार की शिक्षा मनुष्य के जीवन भर चलती रहती है। परिवार एवं समुदाय में रहकर हम जो सीखते हैं उसमे से वह सब जो समाज हमें सिखाना चाहता है अनौपचारिक शिक्षा की कोटि में आता है। मनौवैज्ञानिकों का कहना है कि मनुष्य के व्यक्तित्व का तीन चौथाई निर्माण उसके पहले पॉच वर्षों में हो जाता है और इन वर्षों में शिक्षा प्राय: अनौपचारिक रूप से ही चलती है।
- निरौपचारिक शिक्षा-
वह शिक्षा जो न तो औपचारिक शिक्षा की भांति विद्यालयी शिक्षा की सीमा में बांधी जाती है और न अनौपचारिक शिक्षा की भांति आकस्मिक रूप से संचालित होती है, निरौपचारिक शिक्षा कहलाती है। इस शिक्षा का उद्देश्य, पाठ्यचर्या और शिक्षण विधियां प्राय: निश्चित होते हैं, परन्तु औपचारिक शिक्षा की भांति कठोर नहीं होते। यह शिक्षा लचीली होती है। इसका उद्देश्य प्राय: सामान्य शिक्षा का प्रसार और सतत् शिक्षा की व्यवस्था करना होता है। इस पाठ्यचर्या को सीखने वालों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर निश्चित की जाती है। समय व स्थान भी सीखने वालों की सुविधा को ध्यान में रखकर निश्चित किया जाता है। यह शिक्षा व्यक्ति की शिक्षा को निरन्तरता प्रदान करने का कार्य करती है।
निरौपचारिक शिक्षा के भी अनेक रूप हैं जैसे प्रौढ़ शिक्षा, खुली शिक्षा, दूर शिक्षा और जीवन पर्यन्त शिक्षा अथवा सतत् शिक्षा।
- प्रौढ़ शिक्षा-
इस प्रकार की शिक्षा 15-35 वर्ष की आयु वर्ग के निरक्षर एवं अशिक्षित व्यक्तियों को शिक्षा प्रदान करने के लिये होती है। यह शिक्षा उन्हें जीवन जीने की कला, अधिकार एवं कर्तव्यों का ज्ञान, आर्थिक अभिक्षमता तथा भावी समाज के निर्माण हेतु योग्य बनाती है। यह शिक्षा देश मे सम्पूर्ण साक्षरता के लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायक है।
- खुली शिक्षा-
खुली शिक्षा, शिक्षा के क्षत्रे में एक नया आन्दोलन है। न आयु, न योग्यता, न समय और न स्थान न पाठ्यक्रम का बंधन और न ही कक्षा शिक्षण बंधन, वाली शिक्षा है, इसलिये इसे खुली शिक्षा कहा गया है। खुली शिक्षा को बढ़ावा देने में इवान इलिच का बहुत बड़ा हाथ है। उनकी पुस्तक ‘‘दी स्कूलिंग सोसाइटी’’ में उन्होंने खुली शिक्षा के सकारात्मक पक्ष उजागर किये। यूरोप में इस शिक्षा को काफी सफलता मिली इसके पाठ्यक्रम अति विस्तृत और जीवनोपयोगी है। हमारे देश में खुली शिक्षा का शुभारम्भ सबसे पहले 1977 ई0 में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हुआ। यह शिक्षा पत्राचार, आकाशवाणी, टेपरिकार्डर, कैसेट्स, दूरदर्शन और वीडिया कैसेट्स के माध्यम से दी जाती है। इसके माध्यम से शिक्षण व्यवस्था करने में नवीनता व रोचकता रहती है।
- दूर शिक्षा-
दूर शिक्षा मूलत: किसी देश के दूर -दराज में रहने वाले उन व्यक्तियो को शिक्षा सुलभ कराने का एक विकल्प है जो औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं। सीखने वालो को किसी भी शिक्षण संस्थान में नहीं जाना पड़ता वरन् अपने स्थान पर पत्राचार, आकाशवाशी, टेप रिकार्डर कैसेट या दूरदर्शन, विडियो कैसेट्स के माध्यम से शिक्षा प्राप्त करते हैं। इस शिक्षा का श्रीगणेश 1856 में बर्लिन (जर्मनी) में हुआ है। हमारे देश में दूर शिक्षा का श्रीगणेश सर्वप्रथम विश्वविद्यालयी शिक्षा के क्षेत्र में हुआ। यह उन लोगों के लिये सुअवसर उपलब्ध कराती है, जो किसी भी कारण शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाते हैं। दूर शिक्षा की पाठ्य सामग्री एवं शिक्षण विधियों के क्षेत्र में निरन्तर शोध एवं परिवर्तन होते रहते हैं, ये सदैव अद्यतन एवं उपयोगी होते हैं।
- जीवन पर्यन्त शिक्षा-
जीवन पर्यन्त शिक्षा का अर्थ है व्यक्ति द्वारा बदली हुयी परिस्थितियों में कुशलतापूर्वक समायोजन करने के लिये जीवन पर्यन्त अद्यतन ज्ञान की प्राप्ति अथवा कौशल में प्रशिक्षण अथवा तकनीकी की जानकारी देना। काम के साथ शिक्षा ही इसकी विशेषता है। यह सतत् शिक्षा का विशिष्ट रूप है। प्राचीन काल में भी आजीवन शिक्षा सम्बंधी तथ्य या कि ज्ञान का भण्डार असीमित है अत: इसकी प्राप्ति हेतु अवकाशकाल में जीवन भर अध्ययन करना चाहिये। यह शिक्षा मनुष्य को हर समय अद्यतन ज्ञान एवं कौशल प्राप्त करने हेतु अवसर सुलभ कराती है, और उसे नयी परिस्थितियों में समायोजन की कुशलता विकसित करती है। यह निरन्तर मनुष्य की समझ व कार्यकुशलता को विकसित करती है।
विषय क्षेत्र की दृष्टि से
विषय क्षेत्र की दृष्टि से शिक्षा के दो रूप होते है- सामान्य और विशिष्ट।
- सामान्य शिक्षा-
वह शिक्षा जो किसी समाज के प्रत्येक मनुष्य के लिये आवश्यक होती है, वह सामान्य शिक्षा कहलाती है। इसके द्वारा समाज की सभ्यता एवं संस्कृति का हस्तान्तरण होता है। यह उदार शिक्षा कहलाती है। यह शिक्षा मनुष्य की परम आवश्यकता होती है। इस शिक्षा में मनुष्य के चरित्र एवं आचरण पर अधिक बल दिया जाता है। यह समाज के आर्थिक उत्थान में सहायक नहीं हो पाती है।
- विशिष्ट शिक्षा-
वह शिक्षा जो किसी समाज के व्यक्तियों को विशिष्ट उद्देश्य सामने रखकर दी जाती है विशिष्ट शिक्षा कहलाती है। इसके द्वारा मनुष्य को एक निश्चित कार्य- जैसे बढ़ईगिरी, लोहारगिरी, कताई-बुनाई अध्यापन आदि के लिये तैयार किया जाता है। इसे व्यावसायिक शिक्षा भी कहते हैं। यह शिक्षा से मनुष्य की सण्जनात्मक शक्तियों को विकसित किया जाता है। इस शिक्षा द्वारा ही कोई व्यक्ति समाज अथवा राष्ट्र में व्यावसायिक उन्नति करता है और आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न होता है।
दोनों ही प्रकार की शिक्षा का अपना-अपना महत्व है। मनुष्य को मनुष्य एवं सामाजिक प्राणी बनाने के लिये सामान्य अर्थात् उदार शिक्षा की आवश्यकता होती है तो दूसरी ओर अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विशिष्ट एवं व्यावसायिक शिक्षा की आवश्यकता होती है।
शिक्षण विधि के आधार पर
शिक्षण विधि के आधार पर शिक्षा को दो रूपों में विभक्त किया जाता है- सकारात्मक एवं नकारात्मक।
- सकारात्मक शिक्षा-
सकारात्मक शिक्षा में हम अपने नव आगन्तुक पीढ़ी को अपनी जाति के अनुभवों एवं आर्दशों से कम समय में ही परिचित कराने का प्रयास करते है। सत्य बोलना मानव धर्म निभाना, धर्म का पालन करना, झूठ न बोलना आदि सकारात्मक शिक्षा है परन्तु इस प्रकार सीखा हुआ ज्ञान स्थायी नहीं होता है।
- नकारात्मक शिक्षा-
नकारात्मक शिक्षा वह है जिसमें बच्चों को स्वय अनुभव करके तथ्यों की खोज करने एवं आर्दशों का निर्माण करने के अवसर दिये जाते हैं, अध्यापक तो केवल, इन तथ्यों की खोज एवं आर्दणों के निर्माण के लिये बच्चों को अवसर प्रदान करता है और उनका दिशा निर्देशन करता है। इस प्रकार सीखा हुआ ज्ञान स्थायी होता है। करके सीखने एवं स्वानुभव द्वारा सीखने से ज्ञान स्थायी होता है, परन्तु इसके लिये शक्ति और परिपक्वता चाहिये। मनुष्य को अपने जाति द्वारा दिये गये पूर्व के अनुभवों से लाभ उठाना चाहिये। बच्चों को अनुभव एवं आर्दश सीधे बताकर उन्हें उनके जीवन के सम्बंधित कर दिये जाये और प्रयोग एवं तर्क द्वारा उनकी सत्यता स्पष्ट कर दिया जाना चाहिये।
शिक्षा का महत्व
शिक्षा किसी भी व्यक्ति और समाज के लिए विकास की धुरी है और यह किसी भी राष्ट्र की प्राणवायु है। बिना इसके सभी बातें अधूरी साबित होती है। शिक्षा का संबंध सिर्फ साक्षरता से नहीं है बल्कि चेतना और उत्तरदायित्वों की भावना को जागृत करने वाला औजार भी है। किसी राष्ट्र का भविष्य उसके द्वारा हासिल किए गए शैक्षिक स्तर पर निर्भर करता है। इस तरह प्रत्येक राष्ट्र के लिए शिक्षा वह पहली सीढ़ी है जिसे सफलतापूर्वक पार करके ही कोई अपने लक्ष्य तक पहुँच सकता है। शिक्षा देश गाँव समाज के विकास के लिए आवश्यक है। शिक्षा जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है जो चरित्र और अंतर्निहित क्षमताओं का विकास करके व्यक्ति की प्रकृति को पूर्णता की और ले जाती है। शिक्षा से व्यक्ति के चरित्र और व्यक्तित्व का विकास होता हैं तो भौतिक कल्याण की, आशा भी की जाती है।
देश में आर्थिक विकास के लिए उदारवादी नीति अपनाई जाएं, विज्ञान एवं आधुनिकीकरण का उपयोग किया जाए या छोटे गृह कुटीर उद्योगों की दिशा में पहल की जाएं अथवा कृषि प्रौद्योगिकी के विकास की कल्पना को सार्थक किया जाएं, जरूरत शिक्षा की ही होगी। भूखे पेट भजन नहीं हो सकता और पेट भर जाने भोजन मात्र से ही विकास नहीं हो सकता इसलिए क्षमताओं और सभावनाओं के विकास हेतू शिक्षा अति महत्वपपूर्ण है।
शिक्षा के माध्यम से ही भारत के गाँवो को सामाजिक परिवर्तन और ग्राम विकास की विभिन्न योजनाओं से जोड़ सकते है। शिक्षा आरै मूल्य का गहरा सम्बन्ध है। मूल्यहीन शिक्षा वास्तव मे शिक्षा है ही नहीं। मूल्यों की शिक्षा प्रदान कर बच्चों में अच्छे संस्कार विकसित किये जा सकते है। उनकी सुप्त चेतना को जगाया जा सकता है जिससे की वे अपने विकास के साथ-साथ अपने समाज और देश के विकास में योगदान कर सकता है।
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