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मानव अधिकार आन्दोलन | Human rights movement B.Ed Notes

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प्रत्येक व्यक्ति राज्य से कुछ अधिकार प्राप्त करता है वह इन अधिकारों को मानव परिवार के एक सदस्य के रूप में प्राप्त करता है। ऐसे अधिकारों को ‘मानव अधिकारों (Human Right) की संज्ञा दी जाती है। मानव अधिकार की यह संकल्पना 20वीं सदी में शुरू हुई है। कई देशों में इसे लोकतान्त्रिक अधिकार (Democratic Rights) भी कहा जाता है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में इसे मूलाधिकार Fundamental Rights) की संज्ञा दी गई है। मानवाधिकारों का विचार प्राकृतिक अधिकारों की संकल्पना में लिया गया है। यह अधिकार इस तर्क पर आधारित है कि ये मनुष्य को मनुष्य के नाते प्राप्त होते हैं अतः यह मनुष्य की प्रकृति में विद्यमान है। यह रीति-रिवाजों, कानून, राज्य या अन्य किसी संस्था की देन नहीं है।

द्वितीय विश्वयुद्ध 1939-45 के बार मानवाधिकारों की समस्या सम्पूर्ण विश्व के लिए गंभीर चिन्ता का विषय बनकर उभरी है संयुक्त राष्ट्र संगठन (UNO) ने मानवाधिकारों की एक विस्तृत सूची तैयार करने का प्रयत्न किया, जिसे इस संगठन की महासभा (General Assembly) ने 1948 में मानवाधिकारों की विश्वजनित घोषणा के रूप में जारी किया। इस संगठन ने अपने सदस्य राष्ट्रों से यह आग्रह किया कि अपने देश के अन्दर स्कूलों, अन्य शिक्षण संस्थाओं, स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से व्यापक प्रचार- प्रसार करें। वास्तव में यह घोषणा पत्र एक स्वतन्त्र लोकतान्त्रिक और कल्याणकारी राज्य के लिए सर्वोत्तम है। इस घोषणा के एक विस्तृत प्रस्तावना के साथ ही 30 अनुच्छेद है। प्रस्तावना में कहा गया है कि सब मनुष्यों की स्वाभविक गारिमा एवं समानता और उनके अपरक्रम अधिकारों की मान्यता ही विश्व में स्वतन्त्रता, न्याय एवं शाक्ति की नींव है। प्रस्तुत घोषणा के अन्तर्गत संरक्षण (Protection) को विशेष महत्व दिया गया है और इसकी विस्तृत रूपरेखा प्रस्तुत की गई है। साथ ही सामाजिक आर्थिक अधिकारों की भी व्याख्या की गई है। इसके साथ ही मूल कर्त्तव्यों का भी उल्लेख किया गया है।

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मानव अधिकार आन्दोलन Human Rights Movement (B.Ed Notes) - Sarkari DiARY

प्रत्येक व्यक्ति के मूलभूत अधिकारों की यह प्राप्ति पश्चिमी समाज के लम्बे इतिहास में निहित है। वे आन्दोलन जो पश्चिम में फ्रांसीसी व अमेरिकी क्रान्तियों में 18वीं शताब्दी में विकसित हुए थे, ने भारतीय विद्वानों के एक छोटे वर्ग को प्रभावित किया था। समाज सुधारकों ने सामाजिक प्रथाओं व परम्पराओं को सुधारने का प्रयत्न किया ताकि महिलाओं व समाज के निम्न वर्ग के लोगों की रक्षा की जा सके।

1918 में कांग्रेस ने ब्रिटिश संसद में अधिकारों की घोषणा का एक प्रपत्र प्रस्तुत किया जिसमें बोलने की स्वतन्त्रता, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता व सभा करने, जातीय विभेद में स्वतन्त्रता आदि शामिल थे। बाद में मोतीलाल नेहरू कमेटी ने 1928 में सभी भारतीय हेतु मूल अधिकारों की माँग की जिसे मना कर दिया गया। यद्यपि इस माँग को ब्रिटिश संसद द्वारा अस्वीकार कर दिया गया था परन्तु काँग्रेस ने 1931 के कराची अधिवेशन में मूल अधिकारों पर एक प्रस्ताव पारित कर दिया।

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1936 में जवाहर लाल नेहरू ने इसके लिए प्रयास किया व बम्बई में रवीन्द्रनाथ टैगोर के साथ (The Indian Civil Liberties Union) की स्थापना की जिसमें सरकार का विद्रोह करने की बात कही गई। 1945 में सर तेजबहादुर सप्रू मूल अधिकारों के महत्व पर बल देने हेतु एक संवैधानिक प्रस्ताव लेकर आये जिन्हें भारतीय संविधान में मिला लिया गया। इस प्रकार इन स्वतन्त्रताओं व अधिकारों का संविधान में शामिल होना भारत के लोगों (हरगोपाल व बाल गोपाल 1998) के प्रयासों का परिणाम था।

स्वतन्त्रता के बाद मानव अधिकार के आन्दोलन को सामान्यतः दो चरणों में देखा जा सकता है-

आपातकाल से पूर्व व आपातकाल के बाद पश्चिम बंगाल में 1948 में Civil Liberties कमेटी की स्थापना हुई व 1960 के उत्तरार्ध (कम्युनिस्टों पर राज्य के दबाव के विरोध में) में आन्दोलन शुरू हुआ। इसमें न्याय व समता के लिए समाज के वंचित वर्ग हेतु प्रजातान्त्रिक अधिकारों की माँग की गई तथा इन्हें न दिये जाने पर इसे पूर्व प्रदत्त अधिकारों की गारण्टी पर हमला समझा गया और विद्रोह शुरू हो गया।

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इन्दिरा गाँधी द्वारा 25 जून, 1975 को आपातकाल लगा देने पर यह आन्दोलन और भड़क उठा क्योंकि इन्दिरा गाँधी ने मूल अधिकारों की माँग को यह कह कर दबा दिया कि इन अधिकारों की माँग दलित वर्ग द्वारा उन्हें सत्ता से हटाने हेतु की जा रही है। फलतः कई संगठन इसके विरोध में उठ खड़े हुए।

1976 में जयप्रकाश नारायण की अध्यक्षता में People’s Union for Civil Liberties and Dernocratic Right (PUCL & PUDR) अस्तित्व में आयी व इसने सामाजिक परिवर्तन के प्रति अपने विस्तृत दृष्टिकोण को अपनाया। ये दोनों अनुबन्ध 1976 में लागू किये गये। 1981 तक अधिकांश राष्ट्र राज्यों ने इन अनुबन्धों को लागू करने के लिए कदम उठाने शुरू कर दिये थे। अंततः UNO के दबाव में भारतीय संसद ने मानवाधिकार संरक्षण बिल 1993 में पारित कर दिया जो 1994 से अस्तित्व में आया।

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