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बाल विकास को प्रभावित करने वाले सामाजिक एवं सांस्कृतिक संदर्भ

Published by: Ravi Kumar
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बाल विकास को प्रभावित करने वाले सामाजिक एवं सांस्कृतिक संदर्भ: बालक का विकास केवल जैविक या शैक्षणिक कारकों पर ही निर्भर नहीं होता, बल्कि उसके सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश की भूमिका भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है। जिस समाज और संस्कृति में बालक पलता-बढ़ता है, वही उसके व्यक्तित्व, सोच, आचरण और नैतिक दृष्टिकोण को आकार देती है।

सामाजिक संदर्भ (Social context)

परिवार और विद्यालय के बाद समाज बालक के विकास में निर्णायक भूमिका निभाता है। समाज के भीतर होने वाली अंतःक्रियाएं और सामाजिक प्रत्यक्षीकरण से बालक के व्यवहार, भाषा, सोच, और नैतिकता का विकास होता है।

सामाजिक अंतःक्रियाएं (Social interactions)

बालक का अपने आस-पास के लोगों जैसे पड़ोसी, दुकानदार, सहपाठी, और अन्य समुदाय के सदस्यों से संपर्क एक निरंतर सीखने की प्रक्रिया होती है। इस प्रक्रिया में वह प्रेम, सहयोग, घृणा, सम्मान जैसी भावनाओं को पहचानता है और विभिन्न सामाजिक व भाषाई कौशलों का अर्जन करता है।

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समूहों और व्यक्तियों के साथ विचारों और वस्तुओं का आदान-प्रदान बालक को समाज की आर्थिक और सांस्कृतिक संरचना से जोड़ता है। इससे न केवल सामाजिक बल्कि मानसिक और भावनात्मक विकास भी होता है।

विद्यालय या समाज में जब बालक अन्य बच्चों के साथ संपर्क करता है, तो इन अंतःक्रियाओं का प्रभाव सकारात्मक और नकारात्मक दोनों रूपों में हो सकता है। सहयोग, परोपकार जैसे गुण सकारात्मक विकास को प्रोत्साहित करते हैं, जबकि लड़ाई या द्वेष जैसी स्थितियाँ नकारात्मक असर छोड़ सकती हैं।

सामाजिक प्रत्यक्षीकरण (Social Perception)

बालक जिन घटनाओं, व्यक्तियों या अनुभवों से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ता है, वे उसके मस्तिष्क में स्थायी प्रभाव छोड़ते हैं। वह अपनी धारणाओं का निर्माण करता है, जो उसके सामाजिक व्यवहार और दृष्टिकोण को प्रभावित करती हैं। ये अनुभव बालक के चारित्रिक और मानसिक विकास के आधार बनते हैं।

सांस्कृतिक संदर्भ (Cultural Context)

बालक का विकास उस संस्कृति के प्रभाव में होता है, जिसमें वह जन्म के बाद प्रवेश करता है। हर संस्कृति के अपने मूल तत्व होते हैं, जो नैतिकता, भाषा, आचरण, शिक्षा और धार्मिक विश्वासों को निर्धारित करते हैं।

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भारतीय संस्कृति में करुणा, दया और परोपकार को महत्त्व दिया जाता है, जो बालक के नैतिक विकास को दिशा देता है। वहीं कुछ आदिम संस्कृतियाँ संघर्ष और आत्मरक्षा को प्राथमिकता देती हैं, जिससे बालक का नैतिक दृष्टिकोण भिन्न रूप में विकसित होता है।

भाषा भी सांस्कृतिक प्रभाव का मुख्य माध्यम है। जिन बच्चों का परिवार भाषाई रूप से समृद्ध होता है, उनका शब्द भंडार अधिक विकसित होता है। सांस्कृतिक पृष्ठभूमि भाषा की शैली, उच्चारण, और अभिव्यक्ति को प्रभावित करती है।

बालक का व्यवहार, उसकी सामाजिक शालीनता और रीति-रिवाजों के पालन की प्रवृत्ति भी संस्कृति से ही आकार लेती है। यदि कोई बालक धार्मिक या आध्यात्मिक परिवेश में पलता है, तो उसमें श्रद्धा, अनुशासन और गहराई की प्रवृत्तियाँ अधिक दिखाई देती हैं।

शिक्षा का स्तर भी सांस्कृतिक वातावरण से जुड़ा है। शिक्षित परिवारों के बच्चे आमतौर पर शिक्षा के प्रति रुचि और समझ विकसित करते हैं, जबकि अशिक्षित या अंधविश्वासी परिवेश बालकों के शैक्षिक विकास में बाधा बन सकता है।

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कुछ परिवारों में यदि अंधविश्वास और रूढ़ियाँ प्रमुख होती हैं, तो बालक भी वही अपनाता है। यह उसके वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तार्किक सोच को बाधित करता है, जबकि खुले और आधुनिक दृष्टिकोण वाले परिवारों में बालकों का समग्र विकास अधिक संभावनाशील होता है।

निष्कर्ष

बाल विकास को सामाजिक और सांस्कृतिक दोनों संदर्भ गहराई से प्रभावित करते हैं। बालक का समाज के साथ संवाद, संस्कृति के साथ जुड़ाव और पारिवारिक परिवेश उसके संपूर्ण व्यक्तित्व निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि हम बच्चों को सकारात्मक सामाजिक संपर्क और समृद्ध सांस्कृतिक अनुभव उपलब्ध कराएँ, ताकि उनका विकास संतुलित, समग्र और मानवीय मूल्यों से युक्त हो।

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Ravi Kumar is a content creator at Sarkari Diary, dedicated to providing clear and helpful study material for B.Ed students across India.

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