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ईस्ट इंडिया कंपनी का झारखंड आगमन | Arrival of East India Company Notes for JSSC and JPSC

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History of Jharkhand – Arrival of East India Company

झारखंड : ईस्ट इंडिया कंपनी का आगमन

झारखंड में ईस्ट इंडिया कंपनी का आगमन सन् 1767 ई. में हुआ था, जबकि इसकी औपचारिक शुरूआत 1765 ई. की इलाहाबाद संधि से हो चुकी थी।

इस संधि में मुगल शासक शाह आलम द्वितीय ने 1765 ई. में 26 लाख वार्षिक कर पर बिहार, बंगाल और उड़ीसा की दीवानी अंग्रेजों को सौंप दी। इस संधि में झारखंड को बिहार का अंग माना गया था।

झारखंड क्षेत्र पर अंग्रेजों द्वारा नियंत्रण स्थापित करने के कई कारण थे। एक तो झारखंड प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न था, दूसरे अंग्रेज कंपनी झारखंड के जंगली- पहाड़ी क्षेत्रों से होते हुए बंगाल से बनारस तक सुरक्षित मार्ग चाहते थे ।

इस समय प्रमुख राज्य थे – ढालभूम का ढालवंश, पोड़हाट का सिंहवंश तथा कोल्हान का हो वंश। ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1767 में फर्ग्युसन के नेतृत्व में कंपनी सेना को सिंहभूम पर आक्रमण के लिए भेज दिया।

जगन्नाथ ढाल स्वाभिमानी राजा था और वह अंग्रेजों की अधीनता नहीं चाहता था। कंपनी ने जगन्नाथ ढाल के विरुद्ध लेफ्टिनेंट रूक के नेतृत्व में एक सेना भेजी। इस समय जगन्नाथ ढाल तो भाग गया, लेकिन उसका भाई नीमू ढाल पकड़ा गया। पुनः ढालभूम क्षेत्र पर नियंत्रण के लिए कैप्टन चार्ल्स मार्गन को भेजा गया। कंपनी ने जगन्नाथ ढाल को अपदस्थ कर नीमू ढाल को शासक नियुक्त कर दिया।

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नीमू ढाल की इस हरकत ने भूमिजों को क्रोधित कर दिया और वे विद्रोह पर उतर आए। नीमू ढाल ने अंग्रेजों की सहायता से विद्रोह को दबा दिया। दस वर्ष तक जगन्नाथ ढाल कंपनी के साथ संघर्ष करता रहा तथा अधिकांश क्षेत्र पर उसने कब्जा भी कर लिया। अंतत: 1777 ई. में कंपनी ने परेशान होकर उसे ही राजा घोषित कर दिया।

हो लोगों द्वारा बार-बार किए जाने वाले विद्रोह के कारण कंपनी फिर से ‘हो’ लोगों पर अंकुश लगाना आवश्यक समझने लगी थी। अतः कंपनी को 1836 ई. में टी. एस. विल्किंसन की सलाह पर कोल्हान क्षेत्र में अपनी सेना भेजनी पड़ी। 1837 ई. में ‘हो’ लड़ाकों ने आत्मसमर्पण कर दिया।

उसने एक प्रशासनिक इकाई (विल्किंसन नियम) का गठन कर उसे एक अंग्रेज अधिकारी के अधीन कर दिया। हो लोगों ने सीधे कंपनी को कर देना स्वीकार कर लिया।
पटना काउसिंल ने कैप्टन जैकब कैमक के नेतृत्व में एक बड़ी सेना को 19 जनवरी, 1771 ई. में पलामू पर आक्रमण करने का आदेश दिया।

चेरो राज्य का दमन करते हुए 21 मार्च, 1771 को अंग्रेजों ने चेरों को आत्मसमर्पण करने पर विवश कर दिया। चिरंजीत राय और जयनाथ सिंह ने भागकर रामगढ़ में शरण ली तथा अपने प्राण बचाए । अब पलामू पर अंग्रेजों ने अधिकार कर लिया तथा 1 जुलाई, 1771 ई. को गोपाल राय को सशर्त वहाँ का राजा घोषित किया गया। तीन वर्षों के लिए सालाना मालगुजारी 12 हजार रुपए निर्धारित की गई।

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छोटानागपुर खास (कोकरह) में इस समय नागवंशी राजा दर्पनाथ शाह का शासन था कोल विद्रोहियों के खिलाफ दर्पनाथ शाह ने पोड़हाट राजा की सहायता की थी जिसके कारण कोल भी छोटानागपुर खास पर लगातार आक्रमण करने लगे थे।

1773 ई. में कंपनी ने छोटानागपुर खास, पलामू तथा रामगढ़ को एकीकृत करके जिला बनाकर उसकी व्यवस्था का भार जैकब को सौंप दिया। एक साल के भीतर ही जैकब ने रामगढ़ पर कंपनी की अपेक्षित परिस्थितियाँ थोपकर और उसे अनुकूल बनाकर सन् 1774 में तेज सिंह को वहाँ का राजा घोषित कर दिया।

मानभूम क्षेत्र में अंग्रेजों का प्रवेश फर्ग्यूसन के नेतृत्व में हुआ था। मानभूम में अंग्रेजों को बहुत अधिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ा।

कंपनी की यही स्थिति सरायकेला में भी थी। यहाँ की भौगोलिक स्थिति के कारण सन् 1837 में जाकर अंग्रेज इस क्षेत्र को अपने अधिकार में ले सके। वास्तव में सरायकेला एवं खरसावाँ भारत के 562 देशी रियासतों में शामिल थे।

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खरकई नदी के तट पर स्थित सरायकेला राज्य कई इलाकों में जिसे पीर कहा जाता था, बंटा हुआ था। इस राज्य की स्थापना विक्रम सिंह द्वारा की गई थी। विक्रम सिंह के बाद उसके पुत्रों में सरायकेला, खरसावां एवं आसनतली का राज्य विभाजित हो गया था। पहली बार इस क्षेत्र में अंग्रेजों का आगमन 1770 ई. में हुआ था।

संथाल परगना क्षेत्र में मुगल राजकुमार शुजा ने राजमहल को अपनी राजधानी के रूप में स्थापित किया था। शुजा से कंपनी का एजेंट गेब्रियल बाउघटन कंपनी को व्यापार करने के लिए फरमान हासिल करने में सफल रहा था।

1763 ई. में मेजर एडम्स राजमहल में स्थापित मुगल शाही टकसाल से कंपनी के लिए भी रुपया ढाला जाने लगा था, लेकिन 1702 ई. में औरंगजेब ने के मीर कासिम को पराजित करने के साथ ही अंतिम रूप से राजमहल क्षेत्र पर अंग्रेजों का अधिकार स्थापित हो गया।

झारखंड की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि जनजातीय संघर्षों एवं स्थानीय राजवंशों के आपसी असहयोग की रोमांचक गाथा है। यही कारण था, कि अंग्रेजों के विरुद्ध इनका स्वतंत्रता संग्राम बहुत समय पहले ही आरंभ हो चुका था। यहाँ के जनजातीय लोग स्वभाव से ही स्वच्छंद और निर्भीक थे तथा बाहरी शासकों के खिलाफ हमेशा उग्र रहे।

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