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भुनेश्वर दत्त शर्मा जी की जीवनी – खोरठा साहित्यकर

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भुनेश्वर दत्त शर्मा का परिचय

नाम- भुनेश्वर दत्त शर्मा
उपनाम- ‘ब्याकुल’
जन्म- 17 मार्च, 1908
पिता- बलदेव प्र. उपाध्याय
दादा- अयोध्या प्रसाद उपाध्याय
जन्म स्थान- महथाडीह, गिरिडीह के निकट
परिवार का आवास- बिष्णुगढ़, हजारीबाग
भाषा में रचनाएँ– हिंदी, उर्दू, खोरठा

साहित्यिक संस्था की स्थापना- सुखद खोरठा साहित कुटीर, बिष्णुगढ़

  • स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय भागीदार फलस्वरूप 1930 में जेल गए
  • 1925 में गाँधी जी से मुलाकात हुई
  • ‘कलाम-ए-व्याकुल’ नामक एकल कविता संकलन उर्दू भाषा में 1939 में विष्णुगढ़ से प्रकाशित हुई
  • हजारीबाग के तत्कालीन सांसद रामनारायण सिंह इन्हें ‘राष्ट्रकवि’ कहकर पुकारते थे ।

निधन – 17 सितम्बर, 1984

खोरठा भाषा साहित के क्षेत्र में भुनेश्वर दत्त शर्मा 

खोरठा भाषा साहित के क्षेत्र में भुनेश्वर दत्त शर्मा जी का नाम खोरठा आधुनिक काल के अग्रगण्य कवियों के रूप में बहुत ही आदर पूर्वक लिया जाता है । 1947 के पूर्व खोरठा साहित्य के क्षेत्र में मुख्य साहित्यिक प्रवृति भागवान भगति एवं श्रृंगार विषयक थी । सर्वप्रथम भुनेश्वर दत्त शर्मा जी ने ही भगवान भगति और श्रृंगार दोनों से बिलकुल अलग सामाजिक बिषयों शिक्षा/सामाजिक कुरीतियों, जाति-पाति आदि विषयक कविताएँ लिखकर खोरठा के आधुनिक साहित्य की बुनियाद रख दी थी । इस बात को खोरठा के मूर्धन्य भाषाविद एवं साहित्यकार ए.के. झा ने भी अपनी एक कबिता ‘आइझ एकाइ खोरठा’ में “ब्याकुल जी ब्याकुल भेल हला, खोरठा बिहिन आगुवे बुनल हला ।जे होवेक बिहिन तो बुनाइल हल, जदियो टोपरें में ढाकी नाइ ।”

यद्यपि इनका परिवार बिष्णुगढ़, हजारीबाग में रहता था किन्तु इनका जन्म गिरिडीह के पास महथाडीह गाँव में हुआ था। इनकी बाल्यवस्था में ही इनके पिता की मृत्यु हो जाने से इनकी परवरिस दादा अयोध्या प्रसाद उपाध्याय की देख- रेख में होती है। दादा जी से ही इन्होने भाषा की आरंभिक शिक्षा पायी थी । इनका मन घर में नहीं लगता था अतः 11 वर्ष की उम्र में ही भाग कर काशी चले गए थे किन्तु कुछ दिनों बाद पुनः लौट आए। 17 वर्ष की अवस्था में ही 1925 में महात्मा गाँधी से इनकी मुलाकात हुई । गाँधी जी तब भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन एंव सामाजिक आंदोलन चला रहे थे।

गांधी जी से प्रेरित होकर ये स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रीय भूमिका निभाने लगे इसी क्रम में 1930 में जेल जाना पड़ा । जेल में व्याकुल जी की मुलाकात हिंदी साहित्य के नामचीन साहित्यकार रामवृक्ष बेनीपुरी जी से होती है तब बेनीपुरी जी कैदी नामक एक हस्तलिखित पत्रिका निकाला करते थे ।इनकी रचनाएं उस पत्रिका में शामिल हुआ करती थी। हजारीबाग के कांग्रेसी नेता एवं प्रथम सांसद राम नारायण सिंह जी से इनकी मुलाकात होती रहती थी । बल्कि यू कहां जाए कि उनके साथ ही ये सक्रिय भी थे। व्याकुल जी कांग्रेस पार्टी का काम देखते थे। इनकी सक्रियता से प्रभावित होकर हीं राम नारायण सिंह ने 1940 ई. रामगढ़ में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन में उन्हें महत्वपूर्ण जिम्मेवारियां सौंपी ।राम नारायण सिंह व्याकुल जी के साहित्य कर्म से भी बहुत प्रभावित थे।इनकी हिंदी, उर्दू एवं खोरठा की ओजस्वी कविताओं को सुनकर वे इन्हें ‘राष्ट्रकवि’ का नाम दे रखा था और इसी नाम से पुकारते भी थे।

व्याकुल जी हिंदी, उर्दू एवं खोरठा में कविताएं करते थे हिंदी साहित्यकारों के साथ साहित्यिक मनचों में कविता 3 पाठ किया करते थे 11939 में ‘कलाम- ए-व्याकुल’ नाम से इनकी उर्दू कविताओं का एक संकलन प्रकाशित हुआ था।इस पुस्तक की कविताओं को पढ़कर हिंदी के नामचीन साहित्यकार माखन लाल चतुर्वेदी जी ने लिखा है – “व्याकुल उपनाम से उर्दू भाषा में लिखी गई शर्मा जी की राष्ट्रीय कविताएं सुनकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है। ये कवि हैं और राष्ट्रीयता की भावना होना इनकी कविताओं में कूट-कूट कर भरी है।”

बानगी के तौर पर इनकी एक कविता की झलक द्रष्टब है “वतन के नौजवान या तो गुलामी को मिटाकर दम ले वरना अच्छा है कि बस सर को कटा कर दम ले।” बिल्कुल आधुनिक और अशिक्षा जैसी सामाजिक समस्या पर इनकी एक खोरठा कविता बहुत प्रसिद्ध है.

एक महिला का छोटा बच्चा किताब कॉपी लेकर स्कूल जा रहा है। उसे देखकर उसकी मां का कलेजा ऊंचा हो जाता है या गर्भ होता है। वह समाज के अन्य बच्चों से कहती है अरे देखो मेरा बेटा स्कूल पढ़ने जा रहा है कविता इस प्रकार है- “हमर बाबू हमर सोना, हमर सुगा पढ़े गेल, सुनगे अकली सुन गे खगिया आइझ करेजा उच भेल ।हाथें पोथी, डंडे धोती, मथवे तेल, ठुमुक-ठुमुक हमर बाबू स्कूल पढ़े गेल ।” व्याकुल जी गांधी के हरिजनोंत्थान एवं अछुतोउद्धार कार्य से बहुत प्रभावित थे। अतः उन्होंने एक अंतरजातीय महिला से विवाह कर लिया । इस तरह का विवाह उस जमाने में अकल्पनी थी उस पर भी ब्राह्मण परिवार में। पर ऐसा करके इन्होंने एक क्रांतिकारी कदम की शुरुआत कर दी । इसका परिणाम यह हुआ कि इन्हें अपने परिवार एवं जाति कुटुम का भारी विरोध सहना पड़ा ।

76 वर्ष की उम्र में 17 सितंबर, 1984 को इनका निधन हो गया। किंतु वो आज भी अमर है

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