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पिछड़े बालकों के सुधार हेतु सुझाव B.Ed Notes

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पिछड़े बालकों के पिछड़ेपन के कारणों का सम्बन्ध उनके परिवार, विद्यालय तथा समाज व उनके अपने शारीरिक, मानसिक एवं संवेगात्मक विकास के स्वरूप से होता है।

इस संदर्भ में शिक्षा शास्त्रियों का विचार है-“समाज सेवाओं और विद्यालय चिकित्सकों को मिलकर कार्य करना चाहिए ताकि पिछड़ेपन के कारणों की खोज की जा सके और उन बालकों के लिए उचित आधारों का प्रयोग किया जा सके।” पिछड़े बालकों के पिछड़ेपन का निदान होने के बाद उन्हें सामान्य स्तर पर लाने के लिए उपचार व शिक्षा के सम्बन्ध में कुछ सुझाव प्रस्तुत हैं-

  1. शारीरिक दोषों एवं रोगों का उपचार कम सुनायी पड़ने वाले या कम देखने वाले छात्रों को आगे लायें व उनके बारे में जानकारी लें कि उन्हें समझ में आ रहा है या नहीं तथा धीरे-धीरे व सहज ढंग से पढ़ायें ।
  2. पारिवारिक वातावरण में सुधार बालकों के परिवार का वातावरण अच्छा न हो तो उसमें सुधार लाया जाये। इस संदर्भ में माता-पिता व परिवार के सदस्यों में ताल-मेल व जागरूकता लायी जाय तथा अच्छा पड़ौस व विद्यालय तथा परिवार का सहयोग काफी आवश्यक है। शिक्षा
  3. आर्थिक सहायता- जो बालक निर्धन परिवार से सम्बन्धित हों उन्हें निःशुल्क तथा छात्रवृत्ति देने की व्यवस्था हो ताकि वे शिक्षा के लिए आर्थिक रूप से सुदृद्द हों ।
  4. विशेष पाठ्यक्रम की व्यवस्था- पिछड़े बालकों का मन पढ़ने में लगे व उसमें सफलता मिले इसके लिए आवश्यक है कि विशेष पाठ्यक्रम की व्यवस्था की जाये । पाठ्यक्रम में सरल विषयों को स्थान दें जो उनकी मानसिक योग्यता, रुचि, आवश्यकता के अनुकूल हो तथा वह उनके जीवन के लिए उपयोगी जीवन से संबंधित और व्यावसायिक उद्देश्यों की पूर्ति करने वाला हो। इसके लिए बुनियादी शिक्षा बहुत उपयुक्त हो सकती है। क्योंकि व्यावसायिक पाठ्यक्रम ही ऐसे बच्चों के भविष्य को बना सकता है।
  5. बालकों के प्रति संतुलित व सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण-माता-पिता, अभिभावकों, शिक्षकों को चाहिए कि वे पिछड़े हुए बालकों के प्रति संतुलित दृष्टिकोण रखें और उनके प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करें ताकि उन्हें अपने पिछड़ेपन को दूर करने के लिए स्वयं प्रेरणा प्राप्त हो और वे अपने को सामान्य बालकों के स्तर पर लाने का स्वयं प्रयास करें।
  6. विशेष शिक्षण विधियों का प्रयोग पिछड़े हुए बालकों के शिक्षण को संभव बनाने के लिए आवश्यकता इस बात की है कि उनके शिक्षण में उनकी ग्रहण-क्षमता रुचि और बौद्धिक स्तर के अनुकूल शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाये। ये शिक्षण विधियाँ इस प्रकार हैं-
    • सरल व रुचिकर शिक्षण विधियों का प्रयोग हो
    • शिक्षण में विशेष सहायक सामग्रियों का प्रयोग हो, जैसे दृश्य-श्रव्य सामग्री, वस्तु चित्र (Models) आदि।
    • मौखिक शिक्षण विधि का कम से कम प्रयोग किया जाये।
    • पढ़ाने की गति धीमी रहे। एक बार में अधिक न पढ़ायें।
    • शारीरिक क्रियाओं तथा प्रयोगात्मक कार्यों पर अधिक बल दिया जाये। इस प्रकार उनकी शिक्षण विधि विशेष रूप से करके सीखने पर आधारित हो।
    • अर्जित ज्ञान का बार-बार अभ्यास कराया जाये।
    • समय-समय पर ऐतिहासिक, भौगोलिक व सांस्कृतिक स्थानों पर भ्रमण के लिए ले जाया जाये।
    • पाठ्य सहगामी क्रियाओं; जैसे खेल-कूद, कवि गोष्ठी, वाद-विवाद प्रतियोगिता, अभिनय आदि का समय-समय पर आयोजन किया जाये।
    • नैतिक शिक्षा पर विशेष बल दिया जाये।
  1. व्यक्तिगत ध्यान-पिछड़े बालकों के अध्ययन को सफल बनाने के लिए तथा सामान्य स्तर पर लाने के लिए व्यक्तिगत विभिन्नताओं पर विशेष ध्यान रखा जाये। इसके लिए कक्षा में छात्रों की संख्या कम होनी चाहिए।
  1. विशिष्ट विद्यालयों की स्थापना- पिछड़े बालकों के अध्ययन को सफल बनाने के लिए विशिष्ट विद्यालयों की स्थापना करना आवश्यक है जिसमें एक ही समान बालकों की शिक्षा संभव हो सके। इस प्रकार के विद्यालयों के बालकों में हीनता की भावना ग्रन्थि उत्पन्न नहीं हो पाती है। उन्हें पढ़ने के लिए प्रोत्साहन मिलता है जबकि सामान्य बालकों के साथ पढ़ने पर उनमें हीन भावना आ जाती है और वे निरुत्साहित होकर और अधिक पिछड़ जाते हैं।
  2. विशिष्ट कक्षाओं की विद्यालयों में व्यवस्था यदि पिछड़े बालकों के लिए पृथक विद्यालय न हो सके तो उनके लिए प्रत्येक विद्यालय में सामान्य छात्रों से पृथक विशिष्ट कक्षायें स्थापित की जायें। ये कक्षायें श्रेणीरहित (Ungraded) होनी चाहिए ताकि छात्र अपनी रुचि व सम्मान के अनुकूल शिक्षा पा सके ।
  3. योग्य एवं सुप्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति पिछड़े बालकों की शिक्षा को सफल बनाने के लिए योग्य, अनुभवी तथा सुप्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति की जाये जो कि बालकों से सहानुभूति रखते हैं वे उनसे निकट सम्पर्क रखें तथा मनोवैज्ञानिक ढंग से शिक्षण कार्य करें।
  4. हस्तशिल्पों की शिक्षा- पिछड़े बालकों में तर्क और चिन्तन की शक्तियों का अभाव होता है। अतः उनके लिए मूर्त विषयों के रूप में हस्तशिल्पों की शिक्षा का प्रबन्ध किया जाना चाहिए। बालकों की कताई-बुनाई, जिल्सदाजी व टोकरी बनाने के अतिरिक्त अगर तकनीकी कार्यों में रुचि है तो प्लम्बर, लकड़ी का काम व बिजली का कार्य सिखाया जाय; साथ ही धातु, लकड़ी, बेंत व चमड़े का काम और लड़कियों को काढ़ना-बुनना, सिलाई, भोजन बनाना आदि। इसके अतिरिक्त उनकी रुचि के विषयों-कला, मेंहदी, नृत्य व संगीत की शिक्षा देकर उनकी बौद्धिक अभिक्षमता कम होने पर भी कलात्मक अभिक्षमता को निखारा जा सकता है।
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इसके अतिरिक्त छोटे समूहों में शिक्षा, संस्कृति की शिक्षा आदि दी जानी चाहिए ताकि पिछड़े बालकों को कक्षा के योग्य व्यावहारिक शिक्षा दी जाय और उनके पिछड़ेपन को दूसरे गुणों व शिक्षा से उभारकर लायी जा सके।

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